दीवारे-ख़्वाब में कोई दर कर नहीं सके
हम लोग शब से आगे सफ़र कर नहीं सके
इक शाम के चले हुए पहुँचे मियाने-शब
भटके कुछ इस तरह कि सहर कर नहीं सके
शायद अभी रिहाई नहीं चाहते थे हम
सो उस को अपनी कोई ख़बर कर नहीं सके
हम कारे-ज़िन्दगी की तरह कारे-आशिक़ी
करना तो चाहते थे मगर कर नहीं सके
आँखों पे किस के ख़्वाब पर्दा पड़ा रहा
हम चाह कर भी ख़ुद पे नज़र कर नहीं सके
तुम से भी पहले कितनों ने खाई यहाँ शिकस्त!
दुनिया को फ़त्ह तुम भी अगर कर नहीं सके?-
अरमानों को तो दिल ने कब के कुचल दिए
बस ख़्वाब आंखों से रिहा होने को मचलता रहा-
तुम्हारे माथे की बिंदी
कमीज़ में चिपके चिपके
हफ्ते भर में
आधा शहर घूम आयी है
सिरहाने रख ली है
आज ख़्वाब में आना
तो ले जाना.-
गुज़रे कल के टूटे ख़्वाबों को
हम जोड़ न पाए।
मोहब्बत तो कर लिया तुमसे,
मगर तेरे हो न पाए।
कोशिश की मैंने बहुत फिर भी,
अतीत से तुझे छुटकारा दिला न पाए।
कुछ तो कमी रह गयी होगी इस मोहब्बत में,
जो तेरी आँखों से,ये सुर्ख लाली मिटा न पाए।
सफ़र में तेरा हमसफ़र बनना एक ख़्वाब रह गया,
हाथों में तेरा हाथ लेकर,उम्रभर का साथ निभा न पाए।
ख़ामोखा दिलासा ना दो अब इस अधूरी मोहब्बत का,
तड़पते रह गए,परंतु इसे पूरा कर न पाए।-
"ज़िन्दगी".. माथे का पसीना बहकर अब चुभता है गले
सोचूँ.. कहीं से इस भरी दोपहर में मद्धम सी हवा चले,
हम यूँ मंज़िल से भटके हैं के.. है चाह अलग और है राह अलग
क़भी धूप की है ज़ुस्तज़ू... क़भी चाहूं के कहीं छाँव मिले,
जाने कैसे रिश्ते मुहब्बत के.. इतने एहसान- फ़रामोश हो गये
के परिंदे पेड़ों से ख़ुश नहीं.. और पत्तों को हैं टहनीयों से गिले,
कितना बेबस सा है यह.. आँसु आंखों में तेरे तसव्वुर का
के रोज़ मेहमां सा आता है.. अपने ही घऱ में शाम ढ़ले..!
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पहले में सोचता था
के..सबसे ख़ूबसूरत
चीज़ें सिर्फ़ अंधेरे में
ही क्यूँ दिखाई देती हैं,
जैसे के ...यह "जुगनू"
"चाँद" "तारे" औऱ..
औऱ बेहिसाब से
यह "ख़्वाब" तुम्हारे,
अब ख़ुद जब जीवन की स्याह रातों से राब्ता हुआ तो पता चला..
के उजालों की तलाश में पहले.. अंधेरों से गुज़रना पड़ता है!-
"बहुत चोट करते हैं.. आजकल फ़ूल पत्थरों पे
तूने अगर फैंके हैं तो.. मुझे हैं यह ज़ख्म क़बूल पत्थरों के,
बहुत प्यारे हैं मुझे यह गम के ख़ज़ाने मुहब्बत के
रखता हूँ संभाल-संभाल के.. हटाकर धूल पत्थरों से,
अज़नबी सी रहती हैं शहर में दीवारें सट के दीवारों से
अफ़सोस.. हमारे भी हो गए.. कुछ हूबहू उसूल पत्थरों से,
बनकर मंदिर-मस्जिदें.. ना जाने क्यूँ टूटा करें
उफ़्फ़.. बेवज़ह बनकर ख़ुदा.. बहुत हो गई भूल पत्थरों से..!"
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साँस आधी सी है.. ना धड़कन पूरी है
जिये जा रहे हैं.. जाने क्या मजबूरी है,
आईने का अहम देखकर हँसते हैं पत्थर
के पराये अक्स पे क्यूँ इतनी मगरूरी है,
चले थे हम यह सोच कर खुशियाँ पाने
के चाँद की तो बस.. रातभर की ही दूरी है,
पऱ मिलों सफ़र करके भी पाया नहीं उसे हमनें
मुहब्बत की शायद.. यह राह ही अधूरी है,
देखकर अंधेरे में जुगनू यह एहसास हुआ दिल को
के कमबख़्त.. जीवन में जलना भी लाज़मी है..
...बुझना भी ज़रूरी है!-
ज़िन्दगी इक ख़्वाब है
रोज़ देखने को मज़बूर हो जाता हूँ,
बस रात भर की सारी जद्दोज़हद है
सुबह चूर-चूर हो जाता हूँ.. !-
आंखों में आँसु.. होंठों पे मुस्कुराहटें ओढ़ी हैं
ज़िन्दगी.. हम इतने कमज़ोर थोड़ी हैं,
हम तो मंज़िल की ज़ुस्तजू में सीधे ही चलेंगे ए दिल
क्या हुआ जो उसने.. अपनी राहें मोड़ी हैं,
क़भी ख़ाली होते नहीं मुहब्बत के ख़ज़ाने
हीरा गवां के हमनें यादों की अशर्फ़ियाँ जोड़ी हैं,
वो पंछी ज्यादा दूर तक देखना उड़ ना पायेंगे
शज़र पे बैठ कर.. जिन्होंने टहनियाँ तोड़ी हैं,
आंखों में आँसु.. होंठों पे मुस्कुराहटें ओढ़ी हैं
ज़िन्दगी.. हम इतने कमज़ोर थोड़ी हैं!
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