सरल तरल अविरल विरल लगे, सबके मन को भावे
छल बल फल कछु ना जाने, माधव माधव गावे ।
मंद मलंग छोट बड़े प्रिय, सबै इसको सुहावें
ऋतु-ऋद्धि-ऋतुजा-तरंगावलि, लाडो यह कहलावे ॥-
कालिदास व मेघदूतम्
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भूमिका - ज्ञानार्जन करने के बाद जब कालिदास घर लौट के आए तो अपने मेघदूत काव्य रचना में इतने व्यस्त थे कि अपनी पत्नी की ओर ध्यान ही नहीं दीया इसी से व्यथित होकर विद्योत्तमा कहती है शायद उसके कटु वचन जो उसने क्रोध में आकर बोल दिए थे उसी वजह से उसके प्रियवर आज उससे बात नहीं कर रहें हैं अथवा उन्होंने किसी और से प्रीति लगा ली है क्योंकि पुरुष का तो स्वभाव ही ऐसा होता है l
शेष कविता में - ( please do read caption )-
इस रात की कोई सुबह होती अगर दिखती मुझे,
मैं जागकर करता गुजारा बिन किसी से कुछ कहे।
भोर तक मैं देखकर थकता न करता बंद पलकें।
चांद जलता रात भर खुलकर बिखरती रोज अलकें।
प्रीति-
जल नेत्रजा उपहार,अर्णव रूप श्री हरिगीतिका।
अवतार 'शंकर' रूप,अंत भयो भरी भव भीति का।
शनिवार पावस काल,मेह परे सुनौ सब प्रीति का।
शुभ मंगला शिव संग,आयुष भ्रात हो वर रीतिका।
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यद्यपि हृदय के हाल तुमसे छिप नहीं सकते प्रिये ।
पर क्या मुझे इस हाल में कातर न होना चाहिये ।।
हैं आज निर्झर बन रहे ये अश्रु के भी कण अहो ।
हो कर विमुख निज धर्म से जीवित रहूँ कैसे कहो ।।
कैसे भला संभव रहे दुःख शोक हिय व्यापे नहीं ।
दुःसह व्यथा देते हुये विधि हाथ क्या कांपे नहीं ।।
पर हित सदा उन्मुख रहा मुझसे हुआ ना पाप है ।
जो दुःख मुझे विधि दे रहा किस जन्म का अभिशाप है ।।-