राणा माधवेन्द्र प्रताप सिंह   (©माधवेन्द्र सिंह "रोशन")
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Joined 19 October 2017


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दिसम्बर और जनवरी में फरक होता है लम्हें का ।
यही लम्हा मोहब्बत है यही लम्हा जुदाई है .... ।।

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मंजिल से डर लगता है
डर इस बात का
कि ये सारे द्वन्द्व
उम्मीद
सफ़र की कश्मकश
ये कल्पनायें
ये आँसू
ये लोग
प्रतिस्पर्धायें
सब खत्म हो जायेंगी
और बचेगी
एक कील
जिसे मेरे नाम और उपनाम के
बीच में ठोक दिया जायेगा ।।

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उससे अपनी यारी है ।
बस ये ही दुश्वारी है ।।

कैसे दिल को समझायें ।
कोशिश अब भी जारी है ।।

हुश्न जो खुल के बरसे तो ।
भीगी दुनिया सारी है ।।

होंठ मज़ीद गुलाबी हैं ।
लहज़ा तेज़ कटारी है ।।

उसके बोसे मीठे हैं ।
सारी दुनिया खारी है ।।

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मैं अक्सर ये सोचता था कि आखिर किस तरह पत्थरों से नदियाँ निकली होंगी । पत्थर शख़्त, स्थिर, संकुचित और नदियाँ इससे पूर्णतः विपरीत गुण वाली तरल, प्रवाहमयी और विस्तृत । बहुधा महनीय विद्वानों से भी पूछने पर संतोषजनक उत्तर प्राप्त न हुआ । कालान्तर में जब मुझमें कविताओं का उद्भव हुआ तब ये सदा से निरुत्तर रहा प्रश्न अनायास ही हल हो गया । तब ये भी जाना कि क्यूँ वो पत्थर पूजे गयें जो नदियों से साथ बह निकलें और ये भी जाना कि आधुनिकता के अन्धी दौड़ के चलते क्यूँ कुछ नदियाँ हो गयीं मैली ।

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बांध जूड़ा वियोगन बनी साधिका,
ना फ़िकर दर्द का ना फिकर व्याधि का ।
कह गये थें कभी मैं मिलूँगा यहीं,
कृष्ण की राह तकती रहीं राधिका ।।

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