फूल डाल पर जब रहे, मन में बसे सुगंध
झर कर बिखरे राह में, टूटे जब अनुबंध-
मेरी देह से क्यों तेरी देह की, सुगंध आती है?
क्या तू अब भी रातों में, मेरे लिखे छंद गाती है?-
हां मैं अधूरी हूँ
कहां ढूंढ पाइ हूं खुद में खुद को
मैं कस्तूरी हूं.....
मैं जीती रही हूं पर सुनती कहां हूं खुद की
सबके संग बह जाती हूं सबके रंग रंग जाती हूं
कभी लौट कहां पाती हूँ ठहर कहां जाती हूं
बंध जाती हूं बेड़ियों से जंजीरों से
बाधाओं से बंधनों से खोखले रिवाजों से
दबाने वाली आवाजों से
राह में पड़ी मुश्किलों से
कहां कुचल पाती हूं
आगे निकल पाती हूं कहां जी पाती हूं
अपनी सोच
बस सोचती हूं
हां मैं अधूरी हूं ....कहां ढूंढ पाइ हूँ
मैं कस्तूरी हूँ।
प्रीति-
कह गये वो कि जब तुम जाओ
तो बीज धरती पे हो और सुगंध आसमान में हो
हम तो बस इतना कहेंगे
मेरी राख का कण कण सारे जहान में हो-
कपड़ों पर इत्र लगाने से क्या!!!!!
मज़ा तो तब है....जब!!!!!!
खुशबू तेरे किरदार से आये!!!!!-
मै सौरभ हूं,
सुगंध का पर्याय हूं।
मै शब्दकार हूं,
शब्दों का अमिट अध्याय हूं।।-
तेरा दिया हुआ वो सूखा गुलाब
मैंने अब तक संभाल के रखा हैं
जिसकी सुगंध अब तक
मेरे मन मंदिर में महक रही हैं
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