लोग इतने ढीठ हो गए आजकल
कि जबतक
बेइज्जती ना करो,
तब तक साले इज्जत ही नहीं करते हैं।😋
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उठो संभालो देश को फिर इतिहास ना काला दोहराओ
स्वार्थ लोभ के कारण फिर से देश नहीं बेच खाओ।
(सम्पूर्ण रचना अनुशीर्षक मेे 👇)-
शीर्षक -- ।। विडंबना।।
मनुष्य'जात की विडंबना देखिए।
प्रेम की बातें तो खूब करता है, प्रेम के गीत भी गाता है, प्रेम के भजन भी करते हैं, पर वास्तव में उनके जीवन में प्रेम का कोई स्थान ही नहीं होता ।
अगर उनके अंदर झांकें तो प्रेम से ज्यादा असत्य , छल , मतलब दूसरा कोई और शब्द नहीं मिलेगा !!-
पहाटे उमललेलं फूल जसे
निष्काम भावनेने अर्पिले जाते देवाला...
तसेच तेसुद्धा वाहून घेतात उभं आयुष्य
त्यांच्याच अंशाकडून वंशाचा उद्धार करायला...
आणि काय विडंबन...
दुसऱ्या दिवशी ते पवित्र फूल
निर्माल्य होऊन कचराकुंडीत
आणि ते अडगळ बनून
वृद्धाश्रमात पाठवले जातात...
निर्दयीपणे....-
सुनाना शुरू किया जो प्रेम काव्य मैने..
हर तरफ से वाह तमाम आने लगे,
सुना उन्होंने किस्सा मेरे प्रेम का कहीं से
तो हर तरफ़ से ताने हज़ार आने लगे।-
विडंबनाओं का अतिक्रमण हो जाता है
जीवन में मेरे,
जब,
मेरे कंधों को सहारा बनाते हुए,
मेरा सिर सहारा ढूंढता है ।-
चीखती चिल्लाते बाज़ारो की वो खामोश गलियाँ....
दबे कुचले आँखों के वो बियाबां सपनें.....
जहाँ खुद को "जायज़" कहने वाले "नाजायज़" देते है..
कितने ही अपने "घरों" की बगिया सजाने वाले,,,,
वहाँ नाज़ुक गुलाब कुचल देते है......
घरों मे पर्दे लगाने वाले वहाँ कितने ही बेपर्दा होते है....
मंदिरो मे माँ को पूजते फिरते है और वहाँ औरत से जी भर के खेल लेते है....
तंग कमरों मे अक्सर अस्मत बेधड़क नीलाम होती है...
रातों को जिंदा लाशें जहाँ गुलज़ार होती है....
"वो" खुद को बेचती कहां है, वो ना जाने कितनों के ज़मीर खरीद लेतीं है....
"वो" इस स्वाधीन देश मे भी "अधीन" है अभी तक |
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नहीं पढ़ी और पसंद की जाती
अक्सर वो कविताएँ जिनमे होता है...
अभागी अनब्याही माँ का दर्द,
कचरे के ढेर मे पड़े नवज़ात की पीड़ा
गरीब किसान की बेबसी,
नन्ही गौरैया की दयनीय स्थिति,
नन्हें भिखारी की बेचैनी,
वेश्याओं का चरित्र,
'नन्ही कलियों' का जबरन तोड़ कर मसला जाना,
शराबखानों के सच्चे किस्से,
सुहागनों का सिंदूरी कैदखाना|
क्यों नहीं रच पाती ऐसी कविताएँ इतिहास?
क्यों कोई कवि आलिंगन नहीं कर पाता ऐसी अभिशप्त कविताओं का?
शायद विडंबना है "सत्य" की यही...
दुर्भाग्य है शायद लेखनी का भी ये |-
ज़ब मै किसी किताब को पढ़ती हूँ
तो सोचती हूँ
कि कितना कुछ सिखाती हैं किताबें हमें ...
फिर सोचती हूँ कि इन्हे लिखने वाला भी
तो हमारी ही तरह इंसान ही होगा न.....
तो किसने किसको सिखाया या लिखा और कौन
किसे सीख दे पाया?
किताबें, जिन्हे इंसानों ने ही रचा हैं
या
इंसान, जो समझते हैं कि वो सीख रहें हैं किताबों से|
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