"सुनों पंडिताइन"...❣️
अब तो ये वादियाँ भी तुम्हें पहचानने लग गयीं है,
तुम्हारी धुन में ये भी प्रेम राग गुनगुनाने लगी है...!
यकीन नहीं होता ..?
तो एक बार
अपना नाम बुलाकर तो देखो...😍
झूम उठेंगी ये वादियाँ
ये अम्बर , ये घटाएं
वो दूर गिरते झरनों से पानी
उनमें इठलाते इन जलचरों का
आपस में क्रीड़ा करना
और इन सब में खोया हुआ मैं..❣️
चलो ना हम इसमें एक घर बनाये
अपने सपनों को वहीं सजाएं
नीले अम्बर तले इन वादियों में
इक-दूजे के इश्क़ में फ़ना हम हो जाएं...।
#पंडित-
वादियों में इश्क़ है
हवाओं का पैगाम है...
वो जीना ही तो जीना है
जो ज़िन्दगी तेरे नाम है...-
ऐसा करता हूँ
खो ही जाता हूँ
इन हसीन वादियों में
वैसे भी
क्या रखा है
इस दुनिया की बर्बादियों में
- साकेत गर्ग-
बारिश की बूंदें,
गिरती हैं जब इन वादियों में,
लगता है जैसे खिल उठीं हों सारी फिजाएं,
बारिश की बूंदे गिरे जब धरा पर,
लगता है जैसे महक रहा हो धरती का कण–कण,
चारों दिशाएं ऐसे झूमें,
जैसे छाया हो उपवन में कोई स्वयंवर ।-
जिसे मैंने हर-एक ख्वाबों में मांगा,
उसकी मुस्कराती खुबसूरत चेहरे से तो
ये वादियां भी और हसीन लगता हैं।
मुझे और क्या चाहिए उस खुदा से,
जिसकी मौजूदगी से तो मेरा वीरान
दुनिया भी जन्नत लगता हैं।-
इन हसीन वादियों से पूछो खूबसूरती क्या है।
इस खुले मैदान से पूछो ठराव क्या है।।
इन हवा की लहरों से पूछो सादगी क्या है।
इस उगते सूर्य से पूछो तप कर चमकना क्या है।।
(धामा आशीष)-
करना
पहाड़ों की खूबसूरत वादियों में घूमना
उन्मुक्त हो पक्षियों की तरह उड़ना
बड़ा अच्छा लगता है
ठंढी हवाओं का छू कर जाना
पहाड़ो से झरनों का निरन्तर गिरना
नदियों का कल कल बहना
नीले आसमान का इंद्रधनुषी होना
मन की तरंगों को जगा जाता है
अंतर्मन को तरोताजा कर जाता है
गगन चुम्बी आसमान से बातें करते पर्वतों का
टेढ़े मेढ़े रास्तों के साथ चलना
मन को रोमांचित कर जाता है-
गुनगुनाती धूप हौले से
यादों की गर्माहट से
बदन को सहला रही
बारिश की मंद फुआर
भीगा के तन- मन को
दिल के तार छेड़ रही
रंगबिरंगी तितलियाँ
मोद से यहाँ-वहाँ
फूलों पे मँडरा रही
उमँग भरी वादियों से
बह रही बलखाती घटा
प्रितम की याद दिला रही
-
वीरान- सी ये वादियाँ गुमसुम-सी हैं जैसे..
चिनार और चीड़ यहां शांत खड़े हैं जैसे..
धुंध ने ढक रखा है, जंगल पहाड़ों को कैसे
कोई राज़ गहरा समेटे हो अपने में जैसे..!!
छुप गई हैं कंदराएं, काई रची पत्थरों से कैसे
पहुंँचती नहीं जहां, सूरज की किरणें भी जैसे..
घुट गई है आवाज़ कोई शोर मचाए कैसे
कहीं कोई सन्नाटे में पुकारे किसी को जैसे..
सांँस जो कोई ले यहां तो ले कैसे
दम घुटता है हवा का भी यहां जैसे..
सीलन भरी दीवारों पर, रिसता है पानी कैसे
उकेरता है कोई, अपने ज़ख्म के निशां जैसे..-