यात्रा समाप्त ही नहीं हो रही इस यात्री की
कब तक बनी रहोगी कविता अर्ध रात्रि की-
समाज में रहता समाज में नहीं हूँ
कल में हूँ खोया मैं आज में नहीं हूँ
दुनिया एक समंदर हम सब हैं यात्री
जाने कहाँ मैं डूबा, जहाज में नहीं हूँ-
गंतव्य तक पहुंचने की चाह में,
तुम बढ़े चले गए,
यात्रा आज भी अधूरी है तुम बिन,
एकाकी जीवन का सामंजस्य
बहुत कठिन है,
मैंने महसूस किया है,
एक यात्री बनकर ही शुरू किया था चलना,
तुम साथ दोगे, विश्वास के साथ,
प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष ही सही,
यात्रा में शामिल रहोगे....आजीवन,
आज भी ढूंढती हूँ तुम्हारे पदचिन्ह,
धरा पर नहीं
मन मस्तिष्क पर तुम्हारी छाप,
तुम नहीं दिखते.....आगे बढ़ गए,
गंतव्य की लालसा में,
यात्रा आज भी अधूरी है....
- दीप शिखा
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//यात्री अंतर्मन//
मैं यात्री हूँ
मैं अंतर्मन हूँ
मैं अकेला हूँ.....
मेरा मार्ग कठिन है
परंतु
वह ले जाएगा मुझे.....
परिसीमा से परिश्रम तक
परिश्रान्त से परिपक्व तक
परिशिष्ट से परिष्कृत तक
परिशोधन से परिरक्षण तक
और
परित्याग से परिवार तक.....
तथापि संपूर्ण होगी यह यात्रा.....
परिपथ से परिपूर्ण तक।-
कुछ यूं इस जहाँ में बेताब है दिल मेरा,
जैसे किसी सहरा में भटका हो मुसाफिर।-
मन में यादो के उदगार लिए, हम अपना राग सुनाते है
जीवन का लेखा-जोखा हैं, यह जिन्दगी
यहाँ सब आते हैं और जाते हैं
कुछ छवियाँ, धुंधली यादों में बस जाती है,
कुछ अपना हाल सुनाती है,
जीवन है , मझदार ऐसी,
कुछ नावें चल जाती है
कुछ सांझ ढले रूक जाती हैं
लगता है, मैला, यात्रियों का
कुछ चलते अकेले है, कुछ संग लिए सबको
यात्री वो है, जो चला अकैला
सांझ ढले, बिन मंजिल के
बिना कुछ पाने को।
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सामान बांध लिया हैं मैंने,अब बताओ "दोस्त"
वो लोग कहा रहते हैं जो कहीं के नहीं रहते।-