कविताओं का एक पेड़ था...
हरा-भरा कुछ वास्तविक कुछ कल्पनाओं से भरा,
....जब वो अपने तारुण्य के शिखर पर था तो
अनेक खूबसूरत पंछी रोज़ उसकी पंक्तियों की टहनीयों पे बैठ चहकते...
नादां... कुछ इक्का-दुक्का परिंदों से उड़ने की आस कर बैठा,
अब सदाबहार कौन रहा है यहाँ... हुआ ह्र्दय बंजर... मन की ऋतुएं बदलीं... बने पन्ने मरुस्थल... क़लम स्याह रहित.... अब उड़ जा रे कागा पतझड़ आयी,
कहीं पड़ा था... पहले कोई आदिवासी प्रजाति थी, बो पेड़ो को काटते नहीं थे...
उसे अकेला छोड़ देते थे... क़भी क़भी आके उस पेड़ को घेर कर कुत्सित भाषा का
प्रयोग करते... औऱ कुछ दिनों बाद वो पेड़ धीरे-धीरे अपने आप ही सुख जाता...,
शायद यही जीवन का सत्य है...
लोग नदी को देखकर नहीं... उसके प्रवाह को देख ख़ुश होते हैं...
शायद... साग़र तभी एकांत में बनते हैं!!
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