हे मुरारी तुमसे मेरी कैसी है प्रीत ये बताओं
ना तुम आते हाल खबर लेने ना देते अपनी खबर
क्या हूं मैं द्रौपदी या हूं मैं तुम्हारी प्रिय सुभद्रा
ना आते लाज बचाने ना कोई कलावा बंधवाने
गोपी हूं मैं तुम्हारी या मैं हूं राधा प्यारी
ना आते रास रचाते ना इक बार बुलाने पर आते
हैं दोस्ती क्या सुदामा जैसे तो फिर
ना आते तुम कभी दोस्ती निभाने
हूं मैं अगर बावली मीरा हलाहल विष का पी रही
ना आते फिर भी अपनी दरस दिखाने
हूं मैं क्या इतनी अभागन, तेरी प्रीत के क़ाबिल नहीं
तुम हों क्या मेरे, तुम्हीं बताओ... अब मोहन मुरारी
मैं तो तुम्हारी हर छवी पर लाखों बार बलिहारी
मुझे बना लो अपने सिर का मोर मुकुट
मैं हर पल तुम्हारे संग बिराजु.....
या फिर वो बांसुरी कभी तुम्हें कमर में तो
कभी अधरो पर साजू.....
या फिर बना लो ग्वाल संध्या तक
तुम्हारे संग आजाऊ.....
या फिर बना लो वृन्दावन की वो पावन रज
तेरे पग से लग कर धन्य हों जाऊ🦚
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मोहन के मोह,
शिव के श्रृंगार सा हो!
कोई फ़रिश्ता इस,
जहाँ में मेरे राम सा हो !!
सीता की परछाईं,
राधा के प्रेम और,
पार्वती सी पवित्र हो जाऊँ!
मिले कोई इसक़दर जो मेरे इस,
ख़्वाब सा हो....!!-
"साँवला सलोना सा मुखड़ा तेरा, चेहरे पर लाली हैं...
अधरों पर माखन लगा, फ़िर भी सुंदरता निराली हैं...
मोरपंख माथे पर शोभित, घुंघराली लट काली हैं...
नशीला हैं बंसी स्वर, निगाहें मधु की प्याली हैं!"-
राधा का मन मोह लिया, मोहन की मुरली ने..
मेरा मन हर लिया, तेरे बेसुरे से गीत ने..!-
कर्मजनित ये विश्व है सारा,
कर्म पे है अधिकार हमारा!
फल सारे श्रीकृष्ण पे छोड़ो,
जिनका ये ब्रह्मांड है सारा.!
विराट रूप का मर्म यही है,
वे ही सागर वे ही किनारा..!
धरती का तृण तृण कान्हा से,
नभ का सूर्य, चंद्र या तारा..!
असुर विनाशक रूप प्रभु का,
संत जनों का सबल सहारा..!
नटखट माखन चोर कन्हैया,
साक्ष्य है यमुना की हर धारा!
भक्ति भाव से मोहन रीझें,
ग्वाल, धेनु,गोपी का दुलारा.!
सिद्धार्थ मिश्र-
मन पर प्रेम बादल छा जाते याद हमें जब हमारे प्रियवर आ जाते हैं।
उनको सोचकर के ही साथी मेरे मन में प्रीत के कमल खिल जाते हैं।
उनके संग होने की अनुभूति से बंधु हम भवसागर पार कर जाते हैं।
छलिया है वो मनोहर, अंदर होकर भी हमें अपने लिए तड़पा जाते है।
उनकी लीला है अपरंपार, उनसे प्रेम हमें है अभिया, ओ बंधु बेशुमार।
सब कुछ उनका है सब कुछ वो है, वो हृदय में आत्मिकता जगाते हैं।
एक उनको याद करने के बाद कुछ और याद आता नहीं है मितवा।
उनको याद करने के बाद उनके नशे में हम सब कुछ ही भुलाते हैं।
वन-वन भटके मन, मन में झाँककर न देखे मन, प्रियवर को निहारे।
बाहर नहीं अंदर जाकर देखो सखि, अंदर मिलेंगे तोहे प्रियवर तिहारे।
हमें सजने की क्या आवश्यकता है सखि, हमें तो प्रभु प्रेम ही सँवारे।
संसार से हमको क्या लेना-देना है, हम तो मोहन मोह में हुए बंजारे।
उनसे अब मैं और क्या माँगू उन्होंने तो बिन माँगे सब कुछ दे दिया।
किसी ने कहा मुझे तब नहीं दिया कोई कहे मुझे अब ये नहीं दिया।
मेरे प्यारे मोहन ने सबको सही समय पर सही हिसाब से सब दिया।
जिसकी जैसे थी जमापूँजी कर्मों की उसको वैसा ख़ज़ाना है दिया।
ये संसार तो एक माया, प्रभु का दिया हुआ है जो कुछ भी पाया है।
उनका दिया "उनको ही न्योछावर" कर देने का शुभ दिन आया है।
उनके प्रेम रंग में रंगकर के अब देखो इस संसार रंगीन को पाया है।
उनकी लीला से जग में रहकर उनको पाया है।-
राम में रहीम दिखे
मौला में मुझे मोहन दिखे
बस हो इनायत इतनी सी
मजहब नहीं सिर्फ इंसान दिखे ।।-
नीलगगन सी देह है उनकी
और अम्बर है पीत सखी
बन जाऊँ मैं उनका अम्बर
रंग दो देह को पीत सखी
सुना है उनको प्रिय बहुत है
मिश्री संग नवनीत सखी
लौनी सी काया, मिश्री सी बोली
क्या लेंगे उनको जीत सखी
तान बंशी की छेड़ें जो वन में
मैं संग गाऊँ गीत सखी
ज्यों मुरली पाती, मैं भी पाऊँ
उन अधरों की प्रीत सखी
कैसे रिझाऊँ और मैं उनको
सूझती न कोई रीत सखी
मोहन होंगे मोहित मुझसे
न होता यह प्रतीत सखी-