आंखे कितनी गहरी है , बातें सुकूँ-नवाज़ है..
उसके होंठों पर थिरकती हंसी, मानो कोई साज़ है..
वो मिट्टी जो तेरे पांवो को छूती है, कितनी खुशनसीब है..
वो फूल जो तेरे बालों मे लगता है, कितना पाक-बाज़ है..
आईने की हालत क्या बयां हो, पागल हुआ जाता है..
वो भी हरे हुए तेरी इक झलक से,जो दरख़्त उम्र-दराज़ है..
मैं बे-सुख़न हूँ , उसका क़ातिल हुस्न देखकर..
सोचो वो किस कैफ़ियत मे है, जो उसका हम-राज़ है..-
सादा लिबास रहता है उनका, वो त्याग की तस्वीर है..
पिता की शख्सियत इस जहां मे, वाकई बे-नज़ीर है..
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मियाँ जी वो चले होली खेलने जिन्हें है रंग पसंद
चला हूँ चेहरों के रंग उड़ाने मुझे जो है बे-रंग पसंद-
कभी इन रास्तों पर जाना नहीं हुआ
दीवानगी तो कि पर दीवाना नहीं हुआ
चर्चे मोहब्बतों के हुए हैं तमाम उम्र
चर्चों में उनके नाम का आना नहीं हुआ
बे-मिस्ल इख़्तियार हमने तो कर लिया
उनसे अभी भी एक अफ़साना नहीं हुआ
करती ये दुनिया उनकी सदाक़त को भी सलाम
हम शम्मा हुए जैसे वो परवाना नहीं हुआ
Mirza तुम्हारी ग़ज़्ल हो रद्द ए अमल वो हो
खुदगर्ज़ अभी इतना तो ज़माना नहीं हुआ-
तेरे ख़्याल बेचैन करते है मुझे.....
बे-ख़्याली में भी तुझ बिन चैन कहां......-
मेरे और ख़यालों के बीच खामोशियां जवां हैं
कभी बेख़याल रहकर कुछ चाहतें रवां हैं।
प्रीति
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// बे-लौस= निष्पक्ष //
खता दोनों ने की, इल्ज़ाम सिर्फ़ लड़की पर रहा
बे-लौस न रहा फैसला, पुरुष- प्रधान समाज में-
यूं ही नही
सुख जाते हैं फूल
यूं ही नही
उड़ जाती हैं रंगत उनकी
वो जुड़े रहते हैं
उन दो लोगो से
जो मिले होते हैं
एक दूसरे से कभी
वो फूल होता हैं
उनका प्रथम स्मृति चिन्ह
जिसे वो रखते है संभाल कर
उसके बे-रंग हो जाने पर भी।-