स्त्री की चाहना बंधन और पुरुष की मुक्ति, इनके मध्य प्रेम एक संघर्ष बना रहता है.
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ये रस्मों रिवाज़ो की 'दुनियां' है कैसी
तड़प ज़िन्दगी को बस , देखा करे हम
वजह बनती है 'आंख' का हर ये आंशु
जो तकदीर ऐसी तो , क्या भी करे हम
विधाता की रचना जो 'जननी' हमारी
बंधी सर से ले पाव , बांधा करे हम
समय की कोई होगी 'तब' की जरूरत
अभी 'आज' की क्यूं न, सोचा करे हम
फ़लक तो वही है नया 'आसमां' है
क्यूं उम्मीद कोई 'तोड़ा' करे हम
नही कोई 'बंधन' जो सैलाब 'मन' को
क्यूं उड़ने से 'परियों' को रोका करे हम
वही जो 'खुशी' है कोई 'खुदकुशी' है
क्या जीकर भी कोई 'मर' कर करे हम-
धोखे की गुंजाइश ही नहीं दोस्ती में अपनी,
बाप-बेटी के साथ, बंधन है दोस्ती का,
जितना गहरा है, उतना ही पवित्र,
और उतना ही विश्वसनीय है।-
मैं तुम्हें किसी बंधन में नहीं रखूंगी।
मैं तुम्हें उड़ने दूंगी ।
तब तक ।
जब तक ।
तुम्हें ये एहसास ना हो जाए ।
पंछी की उड़ान सीमाहीन क्षितिज तक भले ही हो।
लौट कर आना तो उसे अपने घोंसले में ही है।
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बंधने जा रहीं हूं उस पवित्र बंधन में अब,
जिस बंधन में तुम्हारे साथ जीना चाहती थी मैं।-
जुड़ा एक "बँधन" "माँ की कोख़" से, दूजा जुड़ा "प्रकृति की गोद" से,
अस्तित्व नहीं "दोनों माँ" के बिना हमारा, ऋणी हैं सदा सभी हम "माँ" तेरे बच्चे।-
आरम्भ से
अन्त तक
जल से
अग्नि तक
सूरज से
चाँद तक
तेरे होने का
एहसास है
शायद यही
प्रेम है
और
यही है
अटूट
बंधन-
मैं तुम्हारे इश्क़ की परिधि में बंधी एक ऐसी चिड़िया हूँ जो कितनी भी ऊँची उड़ान भरकर दूर निकल जाये लौट कर तुम्हारे काँधें का ही रास्ता खोजती है, तुम्हारे हाथों के कोमल स्पर्श में छिपना चाहती है।
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कौन कहता है बंधन हमेशा बेडियाँ ही होते हैं?..
कुछ बंधन आज़ादी के भी बने होते हैं..-