परिंदों-सा भोला-भाला हूँ मैं
खुदा को एक नाम से जानता हूँ
लोगों ने अपने-अपने मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा बना रखें हैं
खुदा तुम अलग-अलग तो नहीं हो मैं तो तुम्हें एक ही मानता हूँ-
🌻📝🌻"प्यार का पहला ख़त" 🌻📝🌻
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प्यार का पहला ख़त लिखने में वक्त तो लगता है,
नए परिंदों को उड़ने में थोड़ा वक्त तो लगता है।
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जिस्म की बात नही है, उनके दिल तक जाना है,
लंबी दूरी तय करने में थोड़ा वक्त तो लगता है।।
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जैसे खुला आसमान परिंदों की ताकत है,
वैसे ही मेरा इश्क़ मेरी इबादत है,
पर परिंदों को गिरफ्त पतझड़ सी लगती है,
लेकिन मुझे वो गिरफ्त इश्क़ की बहार लगती है |-
ऐ खुदा..
परिंदों की तरह सफ़र मे है , दिल मेरा
न जाने तेरा दीदार किस जहाँ में होगा...॥♡ऽp..!✍
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शुक्र है, परिंदों ने सिर्फ हवा में उड़ना सिखा,
यहाँ, हर शख़्स गफलत-ए-गुमानी में उड़ते हैं।-
मेरा ईश्वर।
वो ,परिंदों के संग उड़ान भरता है
कलरव करता है ...
हवाओं में बहता है
श्वांस बन ।
मेरा ईश्वर!
रश्मियों पर सवार होकर आता है
और सहलाता रहता है गेहूं की बालियों को
अपना रंग देने तक उन्हें।
कि तृप्त हों क्षुब्धाएं
शांत हों आंदोलित हृदय और उदर।
मेरा ईश्वर!
चूंकि बिना आकार है
जल सम बे रंग भी....बे गंध भी
कि ढल सकें सब आकार उस में
घुल सकें ,
जीवन के
इंद्रधनुष और गंध ।।
वो पिता सा ज़रा कठोर है
मां जैसा थोड़ा नरम
मित्र सा सहृदय
प्रेम जितना पवित्र...
हृदयों में धड़कता है वो
संबंधों के एकसार सुर में गुनगुनाता है।।
.....मेरा ईश्वर!-
दुःख..., सुखों का सृजन समय है।
... तुम्हें दुख कि तुम्हारी आकांक्षाओं के मोती
अधभर... राह में ही रह गए
संभवतः ...
देर लगे उन्हें सुमिरनी बनने में...
(संपूर्ण रचना अनुशीर्षक में)-
न रुकी वक्त की गर्दिश, न जमाना बदला,
पेड़ सूखा तो परिंदों ने ठिकाना बदला।-
आज परिंदो से सीखा है मैंने,
अपने पड़ फैला कर उड़ना,
गिरना,फिसलना बादलों को छू जाना।।
दाने चुन कर घर ले आना,
मानवता के सीख सीखना।।
पैगम्बर,परिंदो में न फर्क दिखाना,
दोनों ही का काम है, सच्ची राह दिखाना।।
तू चुन चुन कर तिनके लाती है,
अपनी ताज महल सजाती है,
जब छूट जाता है बसेरा तेरा,
किसी और डाल पे आता नया सवेरा तेरा।।
तेरा काम है,नया सवेरा दिखाना,
सोइ आंखों से पर्दे हटाना।।
अंधेरों से उजाला दिखाना,
फिर किसी और डाल पे बैठ जाना।।
अपने इस छोटे पैर से पृथ्वि की सैर कर आना,
न थकना,न रुकना न कही हार बैठ जाना,
बस चलते जाना ,चलते जाना,चलते जाना।।-
परिंदों सी चाहत
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सुबह बर्फ़ की चादर सा,
खूबसूरत कोहरा था,
मुंडेर पर ठंढ से सिक्त,
कबूतर का खूबसूरत जोड़ा था।
ठंढ से सहमे उनके पंख थे,जो एक दूजे को ,
खुद में महसूसते आलिंगनबद्ध थे,
उनकी खामोश चाहत देखकर गौतम,
मेरी चुप सी आंखे भी खुदमें दंग हैं।
वादियों का एक लंबा जजीरा था,
पगडंडियों पे ,किसी के यादोँ की आहट ने,
मुंडेर पर बैठे ,कबूतरों की सपनीली आंखों की तरह,
मुझको ,
अपने अहसासों में फिर से लपेटा था।
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