हवा दूषित हुई, उँगली पराली पे उठी
दिल किस कदर जले ये कौन ही कहे-
सुना है...
आज फिर पराली जलाई गई है
किसानों के पास
और कोई चारा नहीं था
क्योंकि
सरकार सहयोग नहीं करती
कोई नहीं फ़िर हवाएँ चलेंगी
फ़िर हम जहर भरी साँसें लेंगे
घर में रहेंगे तो घुट-घुट कर मरेंगे
और घर के बाहर घुटन से
निराश न हों
अरे! यह तो खुश होने की बात है
इससे हमारी रोग प्रतिरोधक शक्ति
बढ़ती है
ऐसे ही नहीं हम दिल्ली वाले
कोरोना को हरा रहे
आदत है हमें हर बार
जीतने की
या जीतने का ढोंग करने की-
।। मन गई दिवाली,
आतिशबाजी हुई निराली,
किसानों ने भी खूब जलाई पराली,
साँसों में घुटन की कहानी पुरानी,
नसीहत तो सबने खूब दे डाली,
मगर अफ़सोस किसी ने ना मानी,
कोरोना से बचाव के नियमों की,
धज्जियाँ उड़ा डाली,
इस तरह हमने आसपास की,
कहानी कह डाली,
अब नववर्ष आगमन की करें तैयारी,
फिर होली पर पानी बचाव की,
जद्दोजहद रहेगी जारी,
कलम ने हमारे दिल की,
व्यथा कह डाली।।
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गलतफहमी की हद देखिए
मैने पटाखा ए दीवाली समझा
तुम हरियाणा की पराली निकली
चांद सितारे संग थे मेरे पर
तुम चन्द्रयान की सवारी निकली-
....ये धुआँ भी बड़ा अज़ीब है, ग़ालिब
पराली जले तो, दिल्ली पहुँच जाता है।
पर, जब किसान की फ़सल जलती है,
तो तहसील तक भी नहीं पहुँच पाता।।-
मुझे पराली कह .. पराई कर देता है
बेकार ठूँठ हूँ .. !!
तिरस्कार कर मेरा.. मुझे जला देता है
क्या मैं प्रेम नहीं ??
तो क्यूँ .. मेरी बहार वो अपना लेता है
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जैसे जैसे ये पराली जलाने
का सिलसिला बढ़ेगा,
दिल्ली की हवाओ पर इसका
सबसे ज्यादा असर दिखेगा।
सिस्टम की विफलता कहे या किसानों
की लाचारी ऐसा कब तक चलेगा?-
ये देश-दुनिया कितनी भी अधिक डिजिटल क्यों न हो जाए,
दाल-सब्जी-रोटी कभी भी गूगल से डाउनलोड नहीं होगी।
जब दुनिया में कोविड19 लॉकडाउन से सब-कुछ बंद था,
तब भी किसान खेतों में फसल उगाने/लगाने में व्यस्त था।
आज किसान अपनी फसल, अपने हक़ के लिए लड़ते है, तो
लोग उन पर पराली जलाने, प्रदुषण फ़ैलाने के आरोप मड़ते है।
किसान ₹50,000 के ऋण को महीनों बैंकों में भटकते रहते है।
तो उद्यमियों को ऑनलाइन ऋण उपलब्ध करा दिए जाते है।
देश के वीर जवानों और किसानों का जब जब अपमान करोगे।
होगी तुम्हारी बुरी दुर्दशा, यही बोल सरकार के लिए निकलेंगे।
कितना भी कर लेना डिजिटल इंडिया, कभी तरक्की न होगी
नहीं उगाएगा फसल किसान, तो सब्जी-रोटी नसीब नही होगी।
UK-THE UNTOLD STORY-
सबकुछ धुआंँ धुआंँ है ....
कहते हैं प्राण-दायक धरती पे ये हवा है,
हुआ आज कुछ है ऐसा सब कुछ धुआंँ धुआंँ है।
थी ठीक ही दिवाली पर जल रही पराली,
सूरज भी सो रहा है अंबर में बस धुआँ है ।।
हैं खेत देते खाना, इनके बल पे आशियाना,
इनका है दोष क्या फिर, शुरू कर दिया जलाना।
आफत में जान अटकी मुश्किल है समझाना,
इंसान ने ही ठाना हस्ती को जब मिटाना ।।
विज्ञान का जमाना जरा इसको आजमाना,
कुछ तो निकालो युक्ति, हो आसान निपटाना।
मजबूरियों में शायद जलती हैं ये पराली,
तरकीब ऐसी खोजें, पड़े इनको ना जलाना ।।
घट जाए ये प्रदूषण, थम जाये न ये जीवन,
धरती बनी रहे ही जीवन का आशियाना।
न जले कहीं पराली, न बदनाम हो दिवाली,
ये किसान भी रहें बस, बनके अन्नदाता ।।-