जितने भी थे गुमाँ मेरे, सब चूर हो गये,
वो हाथ मेरा छोड़ के मसरूर हो गये।
जला के मारना, उनके शहर का दस्तूर था,
बस हम भी बेनिशाँ, बा-दस्तूर हो गये।
जो लोग मेरे ज़ख़्मों के मरहम भी थे दवा भी,
आज वो ही मेरे दिमाग़ के नासूर हो गये।
इतने मिले हैं ग़म, के अब ग़म नहीं कोई,
गिरते-गिरते मेरे अश्क़ ही, रंजूर हो गये।
खुला-खुला रखा था, इन्हें चंडीगढ़ की तरह,
ये हालात भी धीरे-धीरे बैंगलूर हो गये।
मरते हुवे ग़रीब की तो कोई भी नहीं खबर,
और क़त्ल करते-करते वो मशहूर हो गये।
जाके शहर में बसे हैं, अपनों के पेट के लिये,
ये कैसी भूख है के अपनों से ही दूर हो गये।
इस आस में लिखे थे के कुछ आएगी ख़बर,
ये भी न हुई ख़बर के, ख़त ना-मंज़ूर हो गये।
चराग़ ज़िन्दगी के, अब बुझने को तड़प रहे हैं,
लगता है ज़िन्दगी के मुकम्मल उमूर हो गये।
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