पल में "है" को "था" में बदल देता है
ज़िन्दगी जीवन व्याकरण कुछ यूँ सबको समझा देता है-
मरीजें इश्क़ हूँ.. मैं
दवा ...दवाई... दवाखाना कहाँ हैं....
मरीजें इश्क़ था ...मैं
ज़ाम....शराब...मयख़ाना कहाँ हैं...-
क्या शक्श था,
जिसने कयामत कर दी..!
रात भर जागने की मेरी आदत कर दी..!!-
हर तरफ़ दह्स्त का मंजर था...
जिसे हम ज़िन्दगी समझते थे उसी के हाथ में खंजर था ..-
मैं दर दर भटका तलाश में ख़ुद के
मिला ना मैं कहीं भी
देखा तुझको , आंखे चौंकी
तुझमें ही था मैं कहीं ना कहीं
खोया तू सब छूटा
रूठा मेरा रब भी
ज़िन्दगी तन्हा दिल सूना
तू मेरी कब थी ?
जानू मैं ना जाने तू क्या
कहीं ना कहीं कुछ तो नमी थी
ना तू बेवफ़ा थी ना मैं बदजुबान
बस सारी मेरे दिल की कमी थी
बस इस नादान दिल की !-
तुम्हें क्या लगता है
कि मैंने कोशिश नहीं की होगी,
मैंने वो सब किया जो मैं
अपनी तरफ से कर सकता था,
पर जब मैं उसे मना कर थक गया,
तो मैने खुद को मना लिया...
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मैं ख़ैरात में हैरत की तरह
तु शबाब में राहत की तरह
अगर इश्क़ ही था
तो अधुरा फ़साना क्यों था
मुकम्मल न था
तो तु दीवाना क्यों था ।-
गलत सुना था...
की इशक आँखो से होता है,,,
दिल तो वो भी ले जाते है ...
जो पलकों तक नही उठातें,,
😊😊-