सुनो ना.. तुम्हारे घर के बाहर, जहाँ छत पर खड़े होते थे तुम, वहीं कुछ शब्द बिखेर दिए थे मैंने, वक़्त मिले तो.. ज़रा उन शब्दों को समेट लेना, कहीं और ना सही, मेरे ही नाम एक वाक्य बना देना, और भेज देना मुझे ही, मुझसे अब.. अपने उन शब्दों की तड़पन देखी नहीं जाती..
क़िस्मत की अजब सी आदत है हमारे जज़्बातों से खेलने की, पहले 'उनसे' मिलाकर 'दो पल' को ख़ुश कर देती है, फिर जुदाई की तड़पन लिख कर, रुला जाती है उम्र भर के लिए