मैं अपने जीवन के एकांतवास में हूँ. खुली किताब के बंद पन्नों से गुज़रकर जब मुझ तक पहुंचोगे तो कुछ हाथ नहीं लगेगा. मेरे चेहरे पर मौन की झुर्रियाँ हैं. आँखों के काले घेरे पुतलियों का रहस्य परावर्तित नहीं करते. मैं तुमसे नज़रें नहीं मिलाऊँगी. मैं व्यक्त नहीं होना चाहती. सामने रहोगे तो तुम्हारे दिल पर हाथ रखकर तुम्हारा दर्द भी न पढ़ सकूँगी. हाँ अगर चाहो तो मिल लेंगे दो मिनट के लिए एक दूसरे को पीठ दिखाकर. चाय अब भी वैसे ही पीती हूँ...बड़ा सा कप ऊपर तक भरा हुआ (जैसे दिल पसन्द है प्रेम से लबालब). तुम्हें तो पता है न मैं कप उँगलियों से नहीं हथेली से पकड़ती हूँ और बीच-बीच में दूसरी हथेली भी लगा लेती हूँ मानो ये कप नहीं दिल है मेरा. क्या ग़लत किया था जो प्यार में ऐसे ही तुम्हें भी बाँधना चाहा था कि तुम मेरे हो...सिर्फ़ मेरे...बस मेरे.
कई दिनों से इतु की ज़िद पर आज छुट्टी के दिन पार्क जाने का मन बना लिया. पोर्टिको से गाड़ी कौन निकाले ये सोचकर अल्फ्रेड पार्क तक टैक्सी ली. तुमसे अलग होने के बाद आज पहली बार पब्लिक व्हीकल में बैठी. पार्क में छुट्टी की भीड़ थी किनारे थोड़ी सी जगह देखकर बैठना चाहा तो उसकी बॉल खेलने की ज़िद मुझे बीचोबीच ले आई. "ममा, मेरी बॉल उन अंकल के पास चली गई" इतु ने झकझोरा. "तो ले आ न" इतु भागकर बॉल लेने चली गई. मैंने पलटकर देखा, पैरों के नीचे से जमीन निकल गई. इतु उस इंसान की तरफ़ बढ़ रही थी जो सब कुछ होते हुए भी उसका कुछ नहीं. मैं बदहवास चीखी क्योंकि उसके कदम मुझे इंसान की तरफ़ बढ़ते न दिखकर एक रिश्ते की ओर बढ़ते महसूस हुई. "इत...उ...उ" मेरे भीतर उफनता हुआ पुरुष सा अहम तिलमिला उठा. कैसे जाने दूँ अपने कलेजे को उसके पास. अन्तस् की स्त्री ने इतु को खींचकर सीने में भींच लिया. उसे डर है पूरी तरह से ख़ाली हो चुकी वो इस बार ख़त्म ही न हो जाए. रोती हुई इतु को मैं पार्क के बाहर ले आई. दिन पर दिन बड़ी होती इतु को कैसे रोक पाऊँगी मैं तलाक़ के इस रिश्ते का दर्द पढ़ने से? कैसे समझा पाऊँगी प्रेम फ़िर भी कहीं जीवित है?