मैंने खुद पर ही ज़ुल्म🥺 ढाई हैं,
लोगों ने ज़ुबान🤐 पे लगाम लगाने कि नसीहत दी थीं..!
मैंने ख़ुद के दिल🚫 पे ख़ुद ही लगाम लगाई हैं..!!-
उस के सामने ज़ुबान बंद पड़ जाती हैं
जो बाते फ़ोन पर होती है
वो बाते रूबरू कम पड़ जाती हैं-
बिछड़ने का नाम आया था उसके होठों पर ,
सहंम सा गया मैं ज़ुबान हिली ना कलम चली।-
ख़ामोशियाँ भी गुनगुनाने लगी है मरसिया मेरा
कमबख़्त इस ज़ुबान ने जारी किया फ़तवा मेरा
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तुम्हारी जुबान पर किसी और का नाम अच्छा नहीं लगता मुझे,
बात कड़वी है "अरज" पर तुम्हारा प्यार सच्चा नही लगता मुझे।-
जो बोल सके तेरे इश्क़ को वो ज़बान कहांँ से लाऊं,
जो बह ना सके चाहत में वो अरमान कहाँ से लाऊं,
सुकून-ए-लफ़्ज़-ओ-बयान होगा चाहे आसान,
जो समझ सके लफ़्ज़ को वो पैमान कहाँ से लाऊं,
दिल की अदालत में नशीन निकले कई साल,
जो दिलवा सके इंसाफ वो फ़रमान कहाँ से लाऊं,
तेरे चेहरे पर देखी मैंने मासूम सी मक़बूलियत,
जो दिखा सके भाव को वो निशान कहाँ से लाऊं,
काबिल-ए-तारीफ़ इक तेरी छुपाने की कला,
जो ढूंढ सके तेरा इश्क़ वो पासबान कहाँ से लाऊं,-
के हर बार होंठों पर आ कर ठहर जाता है इश्क़;
तेरी आंखें ज़ुबान को मोम सा कर देती हैं...-
कुछ हम कहें
कुछ और ही
तुम समझो,
बेकार ये
गलत फहमीयाँ
क्यूँ कर पैदा करें ।
दिल जब
ज़ुबाँ को शब्द
ना दे पाए सही,
खामोश रह कर
क्यूँ ना तुम्हें
महसूस करें ।
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