बूंद बूंद बारिश के संग मैं उलझी यादों को सुलझा रही हूँ
डूब कर पानी के भीतर, हाँ मैं खुद को ही सुलझा रही हूँ
हर इक तकलीफ को सुनाने को पास मेरे अल्फाज नहीं है,
इसलिए लिख फटे कागजों पर ख्वाबों को सुलझा रही हूँ,
बंद दिल को कर और बंद मैं सजल आंखों को खोल रही हूँ,
कि होकर फना शून्यता भीतर, कोरे एहसासों को सुलझा रही हूँ,
बिस्तर पर पड़े सपनों को मैं पानी छिड़का के जगा रही हूँ,
कि शून्यप्रिया को भी कोसती शून्य, मैं शब्दों को सुलझा रही हूँ
कभी देखी हो क्या पिघलता मयंक सूरज के ऊष्मा से जयंती?
देख कर भी क्या करूंगी मैं, मैं चाहत को सुलझा रही हूँ,
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