ये हर रोज नए दर्दों का मेरे घर आना कैंसे
हो रहा है लगता है कोई मेरा पता ग़मों के
दफ्तर में भूल आया है-
कोशिश तो बहुत की.. पऱ याद ना हुआ
के उड़ते परिंदों का क़भी.. सैयाद ना हुआ,
बहुत महँगे पड़े बिखरे मोहः के दाने
पंछी पिंजरे का.. ताउम्र आज़ाद ना हुआ,
दिल तो मैंने भी लगाया था.. मंजनू-राँझे की तरह
पऱ किस्सा मेरी मुहब्बत का नयाब ना हुआ,
जिसे देखकर.. आतीं थीं सुकूँ की नींदें
रहा अधूरा सा.. मेरा पूरा वो ख़्वाब ना हुआ,
कहते हैं के मेहनत का फ़ल हमेशा मीठा होता है
ख़ैर.. कोशिश तो बहुत की....
पऱ अफ़सोस मैं ज़िन्दगी में कामयाब ना हुआ,
कोशिश तो बहुत की.. पऱ याद ना हुआ
"दिल" उड़ते परिंदों का क़भी.. सैयाद ना हुआ..!-
सैयाद ने था जाल बिछाया
और मैं दाना चुगने बैठ गया,
...जलते हुए अंगारों पे
इक ख़्वाब सुलगने बैठ गये,
क्या पता था के यह ख़्वाईशों का दरिया
मुझको डुबोने आया है
उफ़्फ़... ना जाने क्यूँ कर इक जुगनू
पानी में बुझने बैठ गया... !!-
कोई आज फिऱ आँखें.. भर बैठा है
दिल है के फिऱ उसे याद.. कर बैठा है,
पंछी को उड़े तो ज़माना हुआ
फिऱ यह कौन.. मन की डाल पऱ बैठा है,
फिऱ वहीं चल पड़ा है मुहब्बत का कारवाँ
वक़्त जहाँ से कब का.. गुज़र बैठा है,
पूछती है रात मेरे जागने का सबब
मेहमां सा यूँ क्यूँ.. तू अपनें ही घर बैठा है,
नहीं.. मुझे वोही खिलौना चाहिए
दिल है के कम्बख़्त बच्चों सा.. अड़ बैठा है,
बड़ी बेसब्री से ताके वो क़यामत का रस्ता
कोई.. इसकदर ज़िन्दगी से.. डर बैठा है!!-
...है कौन.. परेशां.. नहीं यार.. यहाँ
कोई तदबीर.. कोई तक़दीर से रूठा है,
...मैं कहूँ.. के इक़ मैं ख़ुश हूँ
तो यह दिल भी कितना झूठा है,
...आँसुओं के गिरने की आवाज़ें आती हैं
कहीं कुछ ना कुछ तो हाथों से.. छुटा है,
...शायद शज़र पे नये अंकुर आएंगे
हर पत्ता टहनी से.. टूटा है,
...क्या पाकर मुझे ख़ुश हो तुम
यह ज़िन्दगी ने भी हमसे.. क्या पूछा है,
...अब कैसे कहें ख़्वाइशों के पंछी से
यह आसमाँ.. बहुत ही ऊँचा है!!-
हर मोहः से ज़िन्दगी आज़ाद हो गयी है
हालत पागलों सी यूँ आज हो गयी है,
जबसे ग़म से मुलाक़ात हुई है
ख़ुशी है के जैसे.. ख़्वाब हो गयी है,
कूकती थी दिल में क़भी मुहब्बत की कोयल
बहुत धीमी सी अब उसकी आवाज़ हो गयी है,
हर शय से अब नाराज़ से हो गये हैं
हालत मेरी यूँ.. तेरे बाद हो गयी है,
श.शश.. उसने चिलाना.. अब बंद कर दिया है
शायद बहुत तेज़ अब आग हो गयी है,
राख को छू के देखा तो यक़ीन आया
हक़ीक़त.. किसी की अब.. याद हो गयी है!!-
फिर आज फूट फूट कर रोना चाहता हूँ,
गले लगा ले 'माँ', गोद में सोना चाहता हूँ,
के बहुत देख लिए ये मेले सब घूम घूम कर,
बस तू लोरी सुना दे, सपनों में खोना चाहता हूँ।
'माँ' नहीं है हिम्मत कि अब जज़्बातों से खेलूँ,
तू रोटी कब बनाएगी, मैं आटे का खिलौना चाहता हूँ।
'माँ' जब कोने में रूठ बैठता, तू हर बार मनाती थी,
तू आए मनाने जहाँ, फिर वो कोना चाहता हूं।
'ग़ज़ब', बड़ा हो गया हूँ आज दुनिया की ख़ातिर,
ज़रा नज़रें मिलाना 'माँ', मैं छोटा होना चाहता हूँ....-
यह किस शज़र में,
बस गये हम,
ना फल.,फूल ना पत्तियाँ,
देखते हैं...,
टिकती कहाँ तक हैं
अब यह ख़्वाइशों की बस्तियाँ,
ज़िन्दगी.., तेरे तेज पानी के बहाव में
मेरी यह, कागज़ की कश्तियाँ...!-