काश इज़हार ए मुहब्बत में यूँ माहिर हो जाऊं,
इमरोज़ की अमृता और अमृता का साहिर हो जाऊं..-
मैं नहीं खोजता
तुम में अमृता
न ही खुद को
इमरोज़ बना पाऊँगा।
एक ही प्रेम कहानी
दो बार
अमर नहीं होती।-
सुनो
तुम तुम ही रहो
"मैं" मैं ही रहूँगी
नहीं बंधना मुझे
"हम" वाले बंधन में
उड़ना चाहती हूँ मैं
इश्क़ के उस उन्मुक्त आकाश में
एक मुक्त पंछी जैसे
जहाँ इश्क़ का
कोई दायरा नहीं
कोई बंधन नहीं
कोई फिसलन नहीं
न ही कोई छलावा।
महसूस करना चाहती हूँ
जुनून ए इश्क़
अपने "स्व"के साथ
खुद "अमृता" बनकर
तुम्हें कभी "साहिर"
कभी "इमरोज़" बनाकर।
बोलो है मंज़ूर.....
©Anupama jha
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इश्क़ अपना कुछ इस तरह मुकम्मल कर जाओ
मुझे रहने दो,अमृता सी,खुद साहिर बन जाओ।
© Anupama jha
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अमृता और साहिर,
गर एक हो जाते।
तो नायाब से नगमें,
शायद न लिख पाते।-
मेरे भीतर की अमृता
उस सिगरेट को होंठो पर
रखना चाहती है
जिससे तुमने कश लगाए हों
मगर...
तुम्हारे अंदर का इमरोज़ कहां?-
मैंने इमरोज़ नहीं चाहा
न ही उसकी पीठ
तुम्हारा नाम उकेरने को,
तुम साहिर भी मत बनना
शायद ही कभी मैं
चूल्हे पर चढ़ा सकूँ
तुम्हारे नाम की चाय
बस यूँ ही बने रहना
मेरी सुबह, मेरी शाम और रात
मेरी आत्मा के साथी.-
पूर्ण हुई पाकर तुझे, देख प्रेम की खोज
मैं हुई तेरी अमृता, तू मेरा इमरोज़-
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कैसे कहाँ पता नहीं
शायद बहती हवा सी आकर
तेरे चित्र को
बिगड़कर सवारूँगी
और फिर बस
उसी में बस जाऊँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कैसे कहाँ पता नहीं-