वो सुहानी सर्दियों की शाम, अनमना सा राजू चप्पल पैरों में डाल घर की छत पर सूख रहे ऊनी स्वेटर और जुराबों को लेने जा ही रहा होता है, कि तभी किसी के साइकिल के आने की आवाज़ सुन, एक नज़र वो बरामदे की ओर डालता है। पिताजी काम से लौट आए थे, और राजू की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। सर्दियों के मेले लगे थे गाँव में, राजू खुश होता भी नहीं तो क्यों। पिताजी का हाथ थाम, गले पे माँ के काले टीके के निशान को एक हाथ से छुपाते, राजू मेले की ओर चल पड़ा। जाते ही उसकी नज़र सबसे पहले बंदूक से गुब्बारे फोड़ने वाले खेल पर पड़ी, जिसका इंतज़ार उसे साल भर से रहता है।
धागों से लटकी टॉफियां, मोमबत्तियां और छोटे छोटे खिलौनो को देख, राजू की आँखें हर बार की तरह एक अलग चमक के साथ नज़र आती हैं। पिताजी की मदद से बन्दूक को उठाकर जब राजू निशाना साधने की कोशिश करता है, तभी उसकी नज़र पास खड़े एक लड़के पर पड़ती है। वो भी नन्हें राजू की उम्र का प्रतीत हो रहा है, लेकिन उसके कपड़ों से उसकी उम्र का अंदाज़ा लगाना थोड़ा मुश्किल हो रहा है। राजू आँखों से इशारा कर उसे बुलाता है और बन्दूक आगे कर उसे एक बार निशाना लगाने को कहता है। कुछ झिझक कर, वो बंदूक हाथ में ले, निशाना लगाता है। नन्हा राजू देख रहा है कि उसकी नज़र टॉफ़ी के गुच्छे पर है। उसका साथ देने, राजू बन्दूक पकड़ता है। पहली बार जादू चल जाता है ज़रुरत का कि अब निशाना अचूक लग जाता है दोस्ती का।
- सौRभ
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