( मुझे नफ़रत सी हो गयी हैं,,)
मुझे नफ़रत सी हो गयी हैं,
जिन्हें दर्पण ही देखने नहीं आता, वो आज हमे चरित्र सवारना सिखाते हैं,,
खुद लगाये हैं, अश्लीलता का चश्मा और हमारे वस्त्रों को अश्लील बताते हैं,
ये देखकर मेरी नन्ही सी जान भी हैरत मे पड़ गयी हैं,
हाँ आज मुझे इस भद्दे बेरहम समाज से नफ़रत सी हो गयी हैं,
खुद तो बेलगाम कुछ भी बोले जाते हैं, और हमारी एक आवाज पर सवालो के ढेर लगाते हैं,
खुद का नज़रिया तो नापाक लिए फिरते हैं,
और हमारी सांस लेने के अंदाज पर भी प्रश्नचिन्ह लगाते हैं, ये देखकर मेरी आत्मा मे एक बगावत सी हो गयी हैं, हाँ मुझे इस भद्दे बेरहम समाज से नफ़रत सी हो गयी हैं, जिन्हें धर्म- अधर्म, सभ्यता-कुप्रथा के बीच का अन्तर ही, नहीं पता, आज वो महन्त बने स्त्रीधर्म सिखाते हैं,
जोड़ के नाम परमात्मा का अपने नाम से भगवान शब्द को भी दूषित कर जाते हैं,
स्त्री का धर्म तो दुर, स्त्री की मर्यादा लाज और मान सम्मान को साधु बने रावण ,एक क्षण मे लूट जाते हैं,
ये देखकर मेरी अन्दर की अग्निपरीक्षा मे जलती सीता जीवित सी हो गयी हैं, हाँ आज मुझे इस भद्दे बेरहम समाज से नफ़रत सी हो गयी हैं,
अब तो असार ही नहीं की धरती माँ फटे और हम बेटियों को स्थान दे,
वरना माँ वसुंधरा की गोद में आराम से थका हुआ सर रखकर सोने कि मेरी भी तबियत सी हो गयी हैं,
हाँ मुझे इस भद्दे ...
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