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दशत ओ सहरा में बिखरता गया जो
हर दिन वो हम तेरा ख्वाब देखते रहे.
ढलती शाम में जहाँ बिछड़े थे हम
हर दिन वो ढलती शाम देखते रहे.
बज़्म'में मुनासिब समझा मुकर जाना.
रोज जुबां का झूठा एतबार देखते रहे.
बहुत आबा झाही थी ज़नाज़े पे उसके.
ज़िन्दा जो शख्स सबकी राह देखते रहे.
मेरे बश में नहीं था डूब के जाना माझी
किनारे पे बैठ पानी का बहाव देखते रहे.
अब्र सब्र खबर एक दीये की तीली बालिद
हाथों पे रख अंगार जलती कब्र देखते रहे.
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अमीर अपनी कामयाबी के किस्से
और काली कमायी को गिन रहे थे.
साथ में बैठा फकीर अपने हिस्से की
रोटी किसी भूखे को देके चला गया.
खुदा के घर का मजहबी नहीं था वो
तभी आँखों में खुशी देके चला गया.
गिर चुके है खुदा की नज़रों से वो लोग
वो परिंदा पिंजरे में जां देके चला गया.
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जलराशि की खुली सतह से,
ऊपर आकर देख रहा,
अरुणोदय की प्रतिक्षा में,
शिथिल गगन को देख रहा,
हे प्रभात! तुम आ जाओ,
शिथिल गगन में छा जाओ,
शीतलता को सहता सुमन,
ऊष्मा की राह को देख रहा
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My thumb has a mind of its own,
it runs to clean the chocolate on your chin.
it has memories too.
(Read in the caption)-
Even water has
to undergo changes
to transform to vapour
to reach tha sky.-
When undisturbed,
clear water like a
clear mind reflects
oneself !-
थोड़ा इन्तज़ार और सही
तीन घंटे से लंबी कतार में, बस ये कह कर आगे बढ़ती
कि थोड़ा इन्तज़ार और सही।
पर कोसते ज़ुबाँ सब्र को पहचानते नहीं।
कोई कहता- चुनाव में जुमलेबाजी करने वाले आज लापता है।
तो कोई कहता- अब अधिकारी हमारे हालात नहीं, जेब की गर्मी देखते है।
और दूसरी तरफ अधिकारियों का कहना था-
मौसम के ताप का शिकार हुए है हम
गर्मी जेब में नहीं, हमारे दुखते-जलते पैरों में है।
गली-गली जा कर, लोगों की तानों की आग में पहले दिल फिर बदन जला कर,
दौड़-भाग से पैरों तक झुलसते है और फिर जब घर लौटे
तो जलता हुआ बिस्तर आराम नहीं, बेचैन दौड़ती सोच देता है।
बरसात ने इस बार नाराज़गी दिखाई थी।
झरनों और सैलाब ने गुम होना बेहतर समझा।
अधिकारी बरसात की उम्मीद में डूबे थे
और आम जनता जल विभाग को कोसते रहते।
पर ग़लती किसकी है? क्या इल्ज़ाम थोपना इतना ज़रूरी है?
शिकायतों का अम्बार लगना वाजिब है।
पर आख़िर ये शिकायत है किससे?
काश! इन्तज़ाम ऐसे कर पाते अपने घरों पर
कि हर साल बरसात का थोड़ा सा पानी बचा लेते
तो आज न परेशानी होती, न शिकायत,
न इल्ज़ाम होते, न लम्बी कतार और न खाली बर्तनों संग इन्तज़ार।
आने वाला कल जब हमें बंजर कर जायेगा
तब किसे क़सूरवार ठहराएंगे, कुदरत से लड़ पाएंगे?
खैर! सोच के इस उथल-पुथल में जब मेरी बारी आयी
तो नल ने मुँह बन्द कर लिया और मैंने फिर ख़ुद से कहा- थोड़ा इन्तज़ार और सही। (गीतिका चलाल) @geetikachalal04-