पूरी कविता अनुशीर्षक (कैप्शन) में पढ़ें।
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जलराशि की खुली सतह से,
ऊपर आकर देख रहा,
अरुणोदय की प्रतिक्षा में,
शिथिल गगन को देख रहा,
हे प्रभात! तुम आ जाओ,
शिथिल गगन में छा जाओ,
शीतलता को सहता सुमन,
ऊष्मा की राह को देख रहा
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सज्जनता के अवशेष मिले,
अब केवल उन तहख़ानों में;
जो वर्णीत होते हैं विरले,
विज्ञान के अनुसंधानों में;
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पूरी कविता कैप्शन में पढ़िए-
परस्पर प्रेम पनपा जब,
पिता और पुत्र-पुत्री में,
प्रभु ने प्रेम पल्लव तब,
ढ़का पतले से पर्दे में ।-
अनुशासन से कर शासन वो,
जग में पूजित हो जाते हैं,
हैं राम सकल पौरुष का दंभ,
वनवास सहज सह जाते हैं।
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शहर जब डूब जाता है,
तो बस इतना बताता है,
(पूरी कविता अनुशीर्षक, कैप्शन में पढ़िए)-
वक़्त बिखरे रेत सा,
हम कैद कर ना पाएंगे,
दिन बुरे हैं आज पर,
कल तो अच्छे आएंगे ।।-
मेरे हिस्से की कच्ची धूप,
को तुम सेंतते रहना,
मैं आती हूं अभी जाकर,
मुझे तुम देखते रहना,-
चिरागों को मयस्सर है,
अभी वो आखरी "रेशा",
कि जिसका साथ लेकर वो,
अंधेरा काट लेंगे।-