कहा किसी से छुपी है,
इसकी रौनक अश्क़ो और छलकते जामो के हाथ बिकी है,
शरर शफ़क़ की काली निशा में खुद को ढूँढ़ते दिखी है,
ख़ामोशी लफ्जो की सन्नाटो को चीर चीख रही हो दुखी है...!!
उम्मीद सुबह की उस टूटे तारे की माफिक सी है,
उसके दुःख में दुआ मांग खुशिया ढूंढती ये उदासी ही है,
ये शाम हर रोजे किसी ना किसी पे खेलती अपनी बाजी ही है,
कही बुझी प्यास तो कही कह रही आधी ही है,
होती घातक ये शाम की उदासी ही है...!!
-©Saurabh Yadav...📝
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