!! कागज़ !!
"उतार अल्फ़ाजो को मन से, "कागज़" पर रख देता हूं,
कर मन को हल्का, बोझ मैं इन कागजों पर रख देता हूं"
"कैसे बिना कहे सह लेते हैं सब, हर "मन" की बात
और "जज़्बात" कैसे "खुद" पर ही सह लेते हैं"
"मन की हर बात को रख अलग, बात इन कागजों की लिख रहा हूं,जो अब तक थे ख़ामोश,उन्ही पर उनकी आवाज़ लिखा रहा हूं"
"हैरान हूं, गर जो "तुम भी" यूं ही इसे देख पा रहे हो....!
अल्फ़ाज़ ही नहीं.! अल्फाजों के पीछे देख पा रहे हो!"
शोर इन अल्फ़ाज़ों का नहीं, बस इन "कागजों" की ख़ूबसूरत सी खामोशी देख पा रहे हो, तुम भी मेरी तरह शायद कुछ अलग देख पा रहे हो.!!
-