उलझी हुई सी है ज़िन्दगी इसको सुलझाऊँ क्या!? अधूरी सी हैं ख़्वाहिशें तुमको बताऊँ क्या!? कितनी मुश्किलें हैं राहों में कुछ वक़्त ठहर जाऊँ क्या!? ख़्वाब कभी सच नहीं होते रुकूँ या बढ़ती जाऊँ क्या!? इतने काँटे हैं राहों में इन्हें देख रुक जाऊँ क्या!? कितने ठोकर खाए रास्ता बदलती जाऊँ क्या!? बेहिसाब अनकहे लफ़्ज़ हैं बैठो ज़रा, तुम्हें सुनाऊँ क्या !? अधूरी सी हैं ख़्वाहिशें तुमको बताऊँ क्या!? उलझी-उलझी सी है जीवन की पहेली इसको सुलझाऊँ क्या!?
ज़िन्दगी का ये सफ़र जितना दूर तक का था उतना ही थका देने वाला, हर रोज घर से निकलती मैं इस उम्मीद में कि अपने उम्मीदों को पंख दे सकू उन सबसे हटकर जी सकू जो मैंने जिया ही नहीं हर रोज बहुत बातें होती है खुद से करने को लेकिन मौन ने इस कदर घर बना लिया है की मैं ज़िक्र भी नही करती खुद से ख़ुद का, इस भीड़ में अलग दिखने की चाह में दब कर रह जाती हूँ;जैसे अपने ही मन मे घुटते रहना, कितना अच्छा होता ना अगर मैं अपने विचारों को असलियत में बदल पाती कितना अच्छा होता ना अगर मैं भीड़ से निकल कर निखर पाती कितना अच्छा होता अगर मेरे हिस्से का जवाब, मेरा अच्छा वक्त देता लेकिन इस काश और शायद में सिमट कर रह गयी हूँ ठीक उस टूटे पंख वाले पंक्षी की तरह जिसे उड़ना भी है और पंखों में जान भी नही बची है । इतनी हार मिली की अब हारने से ही हार गई हूं फिर भी अपनी जीत के लिए मैं उम्मीदों का दामन नही छोड़ सकती क्योंकि एक न एक दिन मेरा तारा अलग नज़र आएगा इस आसमान में और फिर वो किसी का लक्ष्य और ऊर्जा का स्त्रोत होगा ।।
किरदार वही है कहानी बदल गई है;साल बदलने के साथ यारी भी बदल गयी हैं,एक जमाना था जब यारों संग मुस्कुराया करते थे मगर क्या कहे जनाब यारों से पूछा तो उनकी ज़बान ही बदल गयी है ।।