घर की बालकनी में बैठा जब देखता हूं सामने पहाड़ों को,
सोचता हूं तब कितनी मुश्किल होती होगी उन्हें खड़ा रहने में,
कितनी मुश्किल होती होगी उन्हें बर्फ से लद जाने में,
कितनी मुश्किल होती होगी उन्हें इस ठंड में बर्फीली हवाओं के छूने से,
कितनी मुश्किल होती होगी उन्हें इस अकेलेपन में,इस वीरानेपन में,
सोचता हूं क्या इतना आसान है उनका यह सफर,
गर्मी आते ही बर्फ का जुदा हो जाना और देह का इस तरह से निर्वस्त्र हो जाना,
क्या इतना आसान है इस सादगी से जी पाना।
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