जज़्बातों के व्यापार के इस दौर में जनाब,
हमें तो हमारी मुफ़लिसी ही अज़ीज़ है ।-
ये हर्फ-हर्फ मुझको अक़ील कर रही है।
जमाने की बेरुखी को जलील कर रही है।
और क्यूं ना हो मोहब्बत मुझको मेरी कलम से।
ये मेरी मुफलिसी को शोहरतों में तब्दील कर रही है।-
दास्ताएँ मेरी मुफलिसी हो गई हैं।
किस-किस को इसका दोष दूं।
मैं तो खुद के ही होश में नहीं था।
क्या खुदा और बंद-ए-खुदा को दोष दूँ ।
मुफलिसी--ग़रीबी-
मुफलिसो कि इस बस्ती में, मैं
साहब,बादशाहों कोभी तौलुगां
लाख लगाओ जुबानों पर ताले,
सच बोला है, और सच बोलुंगा-
उल्फ़त तो ,बेग़रज थी ,....उनसे
मुफलिसी तो इस बात की है, साहब
उन्होंने क़भी पढ़ा ही नही मुझें ।।
-Dr.Priya pachauri ✍️
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न्यूज रिपोर्टर बेरोज़गार दिवस पर चुप क्यों है?
हाँ अमिताभ, कंगना, रिया थोड़ी ना है
कब पानी पिया,खाना खाया,बैचैनी हुई, डर गयी
अरे वो तो बेरोज़गार है उस पर कौन बोलेगा?-
अपने सर पे छाया नहीं थी मगर
लेकिन आज.
एक नादान को धुप में खड़े छाया बेचते देखा मैंने-
Kuch log Muflise Qaba ke,
Halaat me bhi muskurate hai,
Apna dard zamane se chupate hai,
Kyunke wo jante hai,
Marham ka to pta Nahi,
Log ghre zakhm zaroor de jate hai-
"शायद न पहुँच पाऊं उस मंज़िल पर
जिस मंज़िल के ख़्वाब पाले हैं मैंने
न किस्मत का धनी हूं न ख़ुदा का रहम है
अब तक मुफलिसी में ही तो दिन काटे हैं मैंने
कुछ अल्फाज़ो का लेकर साथ
अपनी बेरूखी को भर लेता हूं
अपने ज़िंदगी के पल अपनी
गज़ल, गीत, कविता, कहानीयों से भररखे हैं मैंने"
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जिस किसी का दो वक्त पेट भरा नहीं होता
या....
देखी हो जिसने मुफ़लिसी वही दान कर रहा होता-