ना दिल रोता था, ना ग़म का निशां होता था
ना दिमाग़ खोता था, ना वक़्त तन्हा होता था
कितनी ख़ूबसूरत होती थी वो शाम भी जब
दादी की कहानी में एहसास नया होता था
ना ज़िक्र किसी की, ना फ़िक्र किसी की होती
ना उम्मीद टूटती, ना यकीन फ़ना होता था
क्या दिन थे वो, जब हम भी मुस्कुराते थे
खेलते थे, पढ़ते थे, ख़्वाब बेइंतेहा होता था
कहीं घूमने जाने की ख़ुशी बेशुमार होती थी
अपनों के साथ सफ़र का मज़ा दुगुना होता था
वैसी सुबह, वैसी शाम अब आती ही नहीं है
वो बचपन तो सच में बहुत ख़ुशनुमा होता था
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