जब निकला तो मैं कहाँ अकेला था
संग मेरे, संग मेरे अंधेरो का मेला था।
सुन्न पड़ते जिस्म से निकलती गर्म हवाएं थीं
अब भी पर मैं ज़िंदा था जाने किसकी दुआएं थीं।
मैं भूखा हूँ, मैं प्यासा हूँ, मैं अम्मी की निराशा हूँ
अरे देखो, तनिक पिघलो.. बेतरतीब मैं बेतहाशा हूँ।
सिर्फ ज़िंदा रहूँ, बस इसके लिए हो दुआएं क्या?
बहरे हो? मुझे अब नहीं मयस्सर हो दवाएँ क्या?
आह! ये चीख़..
यह चीख़ भी गला फाड़ कितनी तेजी से निकलती है
हाँफ के सिवा इन्सान की कोई ज़ोर ही न चलती है।
ना पास तुम थे, ना वो था, और.. वो भी कहाँ आयी थीं
मैं अब भी अकेला था चीख़ अनसुनी ही लौट आयी थी।
मैं हूँ जीवन का सताया, मरण का ठुकराया हुआ हूँ
ना घर ही में बसाया और न घाट का बुलाया हुआ हूँ।
मैं क्यूँ ज़िंदा हूँ, बेचारा हूँ.. क्यूँ हारा हूँ आवारा हूँ?
रही है क्या कसर मुझसे, मैं इतना क्यूँ नाकारा हूँ?
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