#मैं, चींटी और मेरा कमरा
एक दिन लगा था चींटियों का रेला,
दिन भर मैं घूरता रहा बैठा अकेला।
झाड़ू उठाया फिर थक- हार के,
उनका कूड़ा बनाया उन्हें झाड़ के।
अगली सुबह फिर वही हाल था,
कैसे भगाऊँ एक बड़ा सवाल था।
उन चींटियों से अब एक जंग होनी थी,
उनकी लंबी कतार फिर भंग होनी थी।
कमरे को धोया पानी की धार से,
फिर चींटी से बोला बड़े ही प्यार से।
अकेला हूँ मुझको यूँ तंग ना करो,
इस गर्मी में चैन मेरा भंग ना करो।
वो बोली- भले ही मैं पिद्दी बहुत हूँ,
न जाऊँ यहाँ से मैं ज़िद्दी बहुत हूँ।
अंततः मैं हार गया और वो जीत गईं
अब बैर भरी पुरानी बातें भी बीत गईं।
दोस्ती हुई अब, तो पूरा कमरा घूम लेती हैं,
ध्यान न दूँ तो अक्सर मुझे चूम लेती हैं।
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