एक घर से दूसरे घर जाते वक़्त
लड़कियाँ ले जाती है साथ अपने
कुछ तस्वीरें, कुछ पसंदीदा कपड़े
और यादों के रूप में परिवार वालों
की एक-दो चीजें, गुज़रे ज़माने में
भी ले जाया करती थी और आज
भी ले जाया करती है, मगर सोचती
हूँ मैं क्या लेकर जाऊँगी, अपनी वो
तमाम डायरियाँ जिनके हर पन्नों पे
शब्दों से तुम्हारी तस्वीर बनी है, या
तुम्हारी दी हुई वो अँगूठी जिसे पहनने
का हक़ ना होने के कारण छिपाकर
रखी है ड्रार में, या ले जाऊँगी बनावटी
चेहरे के चमक में छिपाकर आँखों की
उदासी, अगर सार कहूँ तो ले जाऊँगी
तुम्हें साथ अपने, अपने हैंडबैग में...
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