मेरे उजड़े हुए गुलशन...
की बहार थी तुम...
महज दिल्लगी नहीं...
मेरा सच्चा प्यार थी तुम...-
जनाब हस्र ना पुछो क्या होता है, बिछड़ जाना
किसी बुलबुल से पूछो गुलशन का उजड़ जाना-
मकतूल कर मेरे जस्बात का खिला रहे हो तुम अपना उपवन
हम भी देखना चाहेंगे कहाँ से लाओगे तुम उनमे वफा का गुलशन-
मैं वो सुकून हूँ जो हर किसी को मिलती नहीं
मैं वो फूल हूँ जो हर गुलशन में खिलती नहीं
राब्ता रखना हो मुझसे तो तहज़ीब रखिये
मैं चन्द लफ़्ज़ों से पिघलती नहीं-
अपने मन के गुलशन में गुल संग कांटे बोना चाहती हूँ
अपने आंखो से बहते मोतियो को पिरोना चाहती हूँ
टूटे जो ख़ाब थे मेरे दोबारा संजोना चाहती हूँ
मै पा कर तुम्हे फिर से ख़ुद को खोना चाहती हूँ-
सुना भी कुछ नहीं, कहा भी कुछ नहीं
पर बिखरी हूं ऐसे ज़िन्दगी के कशमकश में
के टूटा भी कुछ नहीं और बचा भी कुछ नहीं
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जब गुलशन गुलशन खिलता हैं
हाँ वो पगला बहारोँ में मिलता हैं ॥-
हम वो फुल कहां,
जो रोज खिलते हैं...
हम तो वो फुल हैं,
जो प्यार के
गुलशन मे खिलते हैं.....
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असीर हूँ मैं, गुलशन से मुझे क्या मतलब
महरूम हूँ कबसे, मुझे तो रोशनी की तलब-