भले डांट घर में तू बीबी की खाना, भले जैसे -तैसे गिरस्ती चलाना
भले जा के जंगल में धूनी रमाना, मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना
कचहरी ही गुंडों की खेती है बेटे
यही ज़िन्दगी उनको देती है बेटे
खुले आम कातिल यहाँ घूमते हैं
सिपाही दरोगा चरण चूमतें है
लगाते-बुझाते सिखाते मिलेंगे
हथेली पे सरसों उगाते मिलेंगे
कचहरी तो बेवा का तन देखती है
कहाँ से खुलेगा बटन देखती है
(पूरी रचना अनुशीर्षक में)-
फसलों के ह्रास को, जेठमासे की प्यास को,
अमिया की खटास को, गन्ने की मिठास को,
खाली हाथ फ़क़ीर को, लकीर के फकीर को,
ख़्वाबों की तासीर को, हकीकत की नज़ीर को
खामोशी की आवाज को, लफ्ज़ों की साज को,
जज्बातों के ज्वार को, मोहब्बत के इक़रार को
प्रेमिका की करार को, प्रेमी के बेक़रार को,
रूह के फरमान को, दिल के उठे अरमान को,
प्रेम के एहसास को, ख़त किसी ख़ास को,
स्त्री के श्रृंगार को, दंपत्ति की तकरार को,
मंद मंद समीर को, उठ चुके ख़मीर को,
स्पंदनहीन शरीर को, मर चुके ज़मीर को,
अँखियो के नीर को, उजड़ चुके कुटीर को
सावन की बहार को, बरसात की फुहार को
नवजात की झंकार को, श्मशान की अंगार को,
सुहागिन की मल्हार को, विधवा की पुकार को,
यौवना के अंग आकार को, झुरियों के साकार को
वासना की उभार को, विरक्ति के इस संसार को,
चाहता हूँ मैं लिखना....पर शब्द नहीं हैं! _राज सोनी-
भले डांट घर में तू बीबी की खाना,
भले जैसे -तैसे गिरस्ती चलाना
भले जा के जंगल में धूनी रमाना,
मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना
कचहरी ही गुंडों की खेती है बेटे
यही ज़िन्दगी उनको देती है बेटे
खुले आम कातिल यहाँ घूमते हैं
सिपाही दरोगा चरण चूमतें है-
सौभाग्य क्या छीना मुझसे ,
मेरा नामकरण " विधवा " हो गया....!!!!-
सुहाग वाला समान देख मन उसका भी ललचाता होगा न,
बेबस मन को दिल उसका न जाने कैसे मनाता होगा न।-
इस समाज ने दुबारा सजाया,
मगर इस दफ़ा फीका सजाया,
रंग छीन कर बेरंग बनाया,
वस्त्र पर उसके सफेद रंग है चढ़ाया,
शोभा था श्रृंगार जिसके रूप का,
फिर भी नियमो ने श्रृंगार विहीन बनाया,
नाम दे विधवा का समाज ने उसको खूब रुलाया,
बदल दिया गया अस्तित्व जीवन का,
हर खुशहाल पल से तिरस्कृत किया,
मान मनहूस कदमों को, शुभ कार्यों से दूर किया,
क्यों समाज ने नारी के साथ ही ऐसा किया?
बदला रूप कभी देखा नहीं किसी पुरुष का,
ना देखा कभी सफेद लिबाज़ में लिपटा हुआ
विधवा जीवन क्यों देखा एक नारी का ही,
क्यों पुरुष का कोई विधवा जीवन ना बना हुआ?
सुजाता कश्यप
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श्वेत-क्षितिज की मांग पर जब सिंदूरी सा छाता है।
मानो किसी विधवा का पुनर्विवाह कराया जाता है।।-
कलम ने कागज़ पर कविता धर दी है।
मानो किसी विधवा की सूनी माँग भर दी है।-
मैं बाल दिवस नहीं मना पाता।
जब भी सोचता हूँ मनाऊँगा,
दिख जाता है कोई बाल मजदूर
आ जाती है सामने कोई बाल विधवा।
इसीलिये, मैं बाल दिवस नहीं मना पाता।-
मेरे सफ़ेद लिबास में,
रंगहीनता नहीं,रंगों की प्रचुरता है... 🤍
( In caption ... )
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