Paid Content
-
मैं एक, मामूली सा मुसव्विर...!
और वो, किसी, ऊर्दू की मशहूर शायरा......,
वो !अपने अल्फाज़ो से, कुछ ऐसी, तस्वीर बनाती,
मैं बस, उसमें रंग, भरता जाता........!-
1875 का चित्र, जिसमें एक जर्मन परिवार को यात्रा की योजना बनाते हुए दिखाया गया है।
-
धूप का रंग
तेज़ हवाओं में मटमैला सा दिखता है
जाड़ों की सर्द सुबह में
कोहरे को चीरती
जब सूरज की पहली किरण फूटती है
तब ऐसा लगता है धूप ने कश मारा हो हुक्के पर
बारिश के तुरंत बाद जब धूप खिलती है
लगता है ऐसे जैसे
बदन पोंछना भूल गई हो धूप
नहाने के बाद
गीले बदन से ही भर लिया हो
आगोश में फूल पत्तियों को
कितना कठिन है
उतारना कैनवास पर
धूप के इन रंगों को
किसी मुसव्विर के लिए-
रंग मुसव्विर के जैसे वो मुझ में भरता है।
ये कलाकारी ना जाने कैसै करता हैं?
मर जाता है वो इंसा मरने से पहले ही जो।
क्या कहेगा ज़माना ,ये सोच कर डरता हैं।।-
تِرے حمد سے ہی شروع ہوں میں بھی
میرا ہونا توں ہی مُصّوِر مِرے
तिरे हम्द से ही शुरु हूं मैं भी
मिरा होना तूं ही मुसव्विर मिरे-
ऐ मुसव्विर हमारी भी कभी तस्वीर बना।
हम भी देखें असर, तेरे हाथों के जादू का।-
हर्फ़ हर्फ़ चुनकर तुझमें लफ़्ज़ों को पिरोया है,
मुसव्विर तेरी तस्वीरों में मैंने ख़ुद को डुबोया है।-
सारी काएनात को हसीन रंगों से है जिसने सँवारा
वो मुसव्विर-ए-'आलम,वो ख़ालिक़, रब है हमारा-