बाबा!
मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहाँ मुझसे मिलने जाने ख़ातिर
घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हे
मत ब्याहना उस देश में
जहाँ आदमी से ज़्यादा
ईश्वर बसते हों
जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ
वहाँ मत कर आना मेरा लगन-
बाबा चुनना वर ऐसा
जो बजाता हो
बाँसुरी सुरीली
और ढोल-मांदर बजाने में हो पारंगत
बसंत के दिनों में
ला सके जो रोज़
मेरे जूड़े की ख़ातिर पलाश के फूल
जिससे खाया नहीं जाए
मेरे भूखे रहने पर
उसी से ब्याहना मुझे-
बहुत आनंदित है,
आज पलाश,
अब आ गया है,
चैत्र का मास,
बुझ गई उसके,
मन की प्यास,
लाल चुनरी ओढ़ने की,
पूर्ण होगी आस,
रोज मना रहा है,
अब वो हर्षोल्लास,
ये गर्म हवाओं का मौसम,
उसके लिए है खास,
घोल रहा है वो,
इनमें अपनी मिठास,
बहुत आनंदित है,
आज पलाश,-
अभिमानी है ? क्यों उपेक्षा करता पलाश,
रिक्त वृक्षो को देखकर रोता नही पलाश-
सूने वन मेें जैसे है मुसकाते पलाश।
वैसे जीवन में खिलते रिश्ते से पलाश।
एकाकी जीवन में कुछ क्षण ही सही ,
मौसम मे हाजिरी आकर लगाते पलाश।
इसको पावन पूजित करते है हम तो ,
दिए तज क्यो , क्यूं शापित रहे पलाश।
धोबन से मांग भरे , फिर चढे सिंदूर,
वैसे ही मौसम को सुहाग देते पलाश ।
हम बबूल कीकर नागफनी बन बैठे ,
सदा तुम रहे 'सुमन' सुहागन पलाश।-
તારું ખીલતું જૌવન
જોવાના લાહ્વો મજાનો છે ,
ખરતાં ખરતાં હસતાં
રાખવાનો લાહ્વો મજાનો છે ..
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इस मौसम में महक जाती हूँ मैं
आईने में कभी-कभी खुद को देखती हूँ
और,...बहक जाती हूँ मैं
खींचते हैं मुझे पलाश के वन
दहकते अंगार जैसे प्रीतम का मन
मुग्ध हो निहारती रह जाती हूँ
जब भी उन रस्तों से गुज़र जाती हूँ
ऊफ्फ...ये दहकती लालिमा
सूने वन में स्थिर से अड़े
आमंत्रण देते हैं मौन खड़े
जी चाहता है धर प्रियतम की उँगलियाँ
दौड़ जाऊँ, नाप लूँ सब पगडंडियाँ
थक कर गिर उनके सीने पर सो जाऊँ
झरते पलाश के फूलों में दोनों को ऐ मीत
लिपटा पाऊँ ....
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पुरवईया के इठलाने से पलाश के फूल जाने से,
होली के लौट आने से वसन्त मादक हो गयी हैं।-
खिल गए हैं केसरिया पलाश, वनों में अग्नि लगी है दहकने,
आया फागुन होली लिए,मन में यादों की हूक लगी है उठने।-