मृषा मुरेठा बंधे
शीश हुआ चौगुना
दर्प बहा जब चक्षुजल में
फिर सहे अवमानना-
जब 'पांव' में 'बाप' की 'पगड़ी' रख दी जाए, तो 'मोहब्बत' से हाथ छुड़ाना पड़ता है..
...फिर चाहे कोई 'वेवफा' कहें या 'बेरहम', कुछ 'फर्ज' हैं जिन्हें निभाना पड़ता हैं...!!
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बेसुध सी खड़ी है
दर्पण के सम्मुख
एक टक निहारती
नेत्र हीन की भांति...
मुख के भावों में
यकायक कुछ बदला
वेदना के पारावार में
हर्ष की एक नाव
तैर गई...
(शेष कैप्शन में)
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*प्रेमिका अपने प्रेमी से*
तूझसे इश्क़ है इतना की खुद को संभाल नहीं सकती
इश्क़ का रंग भी किसी दूसरे पर डाल नहीं सकती
तेरे एक बार कहने पर मैं घर से भाग जाती लेकिन
मैं अपने बाप की पगड़ी सरेआम उछाल नहीं सकती-
तब तक तो साथ चलो जब तक आसान हूं
जहां बोझ लगूं वहीं से रस्ता मोड़ लेना तुम
और मुहब्बत में बात आ जाए बाप की पगड़ी तक
तो तुम्हें इजाजत है जाओ मुहब्बत छोड़ देना तुम-
है वो पगड़ी, मेरे सर की ।
है वो स्वाश, मेरे तन की ।।
है जो मेरी बेटी, पराये घर की ।
है वो मेरी, तुलसी आंगन की ।।-
बाप की पगड़ी से तजुर्बा , ग़र ले लिया आपने
ख़्वाब सारे मुकम्मल होंगे,आपके इस जहां में ||-
पूछता क्या है तू उसकी दस्तार की क़ीमत
जान की बाज़ी लगा दी उसने अपनी इज्ज़त ए दस्तार की ख़ातिर-