द्रौपदी
(अनुशीर्षक में)-
कोई अबला कहता .... कोई कमजोर कहता ,
हर लब पर नारी के लिए ..बेचारी शब्द रहता ....
सहनशीलता है मुझमें .... इसलिए खामोश हू ,
वर्ना ... मैं ही चंडी .... मैं ही काली का रुप हू ....
कोमलता है मुझ में ... तो ज्वालामुखी भी हू ,
खामोश हू लेकिन .... शब्दों की तलवार भी हू ....
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पीड़ा तेरी, ओ री सखि !
व्यक्त करने में असमर्थ हैं
ना दिला सके जो न्याय
तो वर्णमाला के अक्षर व्यर्थ हैं
कृष्णा की सखि तुम देवी!
वही मात्र एक समर्थ हैं।
(Do read in caption)-
समेटे हर बदी है
चीरहरण ग्रसित
हुई ये द्रोपदी है
कृष्ण है दुर्योधन
मुश्किल बढी है-
कृष्ण - द्रोपदी संवाद
(After the end of Mahabharata yudh)
अनुशीर्षक में पढ़ें 👇-
रामायण की बात निकली कारण उसकी सीता थी।
बहस कर पूछ लेना सीता ही एक कारण थी?
नारी थी वो सती थी ,महालक्ष्मी का अवतार थी।
अग्नि परीक्षा पार कर दी, वैसी वो खानदानी थी।।
कहते है कुछ लोग इधर,लड़ाई की नींव डाली थी।
ज़िक्र हुआ महाभारत का द्रोपदी नजर आयी थी।।
पंच महापातकी थे कौरव, यह बात नजर न आयी थी
युद्ध कारण द्रौपदी को कहकर, लज्जा तुम्हे न आयी थी?
पापी रावण भूला दिया, दुर्योधन को बहुत चढ़ा दिया।
सोचो थोड़ो बहुत कुछ ,द्रोपदी और सीता ने कितना कुछ गुमा दिया।।
एक पांचो में बट गई,दूजी धरती में समा गई
जब दोनों को याद किया सती वो कहला गई
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"मेरी हर कहानी में"
ना रामायण का प्रसंग है, ना महाभारत का द्वंद्व
ना सीता हरण पर अब रावण वध यहां है,
ना लगा द्रौपदी पर दांव अपराधबोध पांडवों की नज़रें यहां हैं,
ना ही प्रार्थना स्वीकार्य 'गोविंद' यहां हैं,
अधर्म की पराकाष्ठा है, पर दुर्योधन को मारने
दुःशासन का रक्तपान करने वाला ना भीम यहां है।।
युग बीते कई हैं पर कहानी में परिवर्तन आज भी नहीं है,
सीता कटघरे में आज भी है, द्रौपदी सभा में आज भी है,
रावण का वध, कौरवों से युद्ध आज नहीं है,
कई पांडव, कौरव, रावण सफेद पाश आज भी हैं,
धर्म का पर्याय बताने वाले 'वासुदेव सारथी ' आज नहीं है।
"भारत"... माता हैं....... करती सवाल हैं......
मेरी हर कहानी में.............. ।।।।।-
दुनिया वाले कहते हैं कि जमाना खराब हो गया हैं...
लेकिन उन्हें कौन समझाए कि जमाना कल भी खराब था और आज भी हैं......
द्रौपदी का चिरहरण करने वाले को भूल गये ये लोग पर.......
जिसने सीता को हाथ भी नहीं लगाया वो आज तक जल रहा हैं.......-
हाँ द्रोपदी हूँ मैं........नारी हूँ या खिलौना,
सोच रही हूँ आज भी अपने काल में पड़ी ..
कृष्ण को चाहा बन के उनकी मैने कृष्णा,
अंकुर प्रेम का फूटा नहीं कि गया कुचला,
स्वंयवर रचा अर्जुन मिले, डोली से उतरी,
किस्मत का खेल.... चार और पति मिले,
चौसर में हारा सभा में गई इज्ज़त उतारी,
कृष्ण के बिन बचाने लाज कोई ना आया,
रोते - रोते जिनके आगे थी गिड़गिडड़ाई,
महाभारत का युद्ध हुआ,उसकी वजह भी,
मेरी ही लुटी हुई इज्ज़त के दामन में आई,
वाह रे संसार,आज भी यह रीत ना बदली,
तब सभा में लुटी....अब सरेराह लुटती हूँ,
कोई बदन नोचके खाता है,तो कभी कोई,
नज़रों से ही मेरी इज्ज़त...उतार जाता है,
फ़र्क इतना,तब कृष्ण आए थे सुन पुकार,
अब नहीं आते..करूँ कितनी चीख-पुकार,
बचाना पड़ता है अपनी लाज को खुद ही,
ले कभी काली तो कभी दुर्गा का अवतार...
मगर.... ना बदला था ना है ना बदलेगा...
नारी की नज़र में कभी ये संसार...........-
किसी की जान, किसी की शोना कहला रही हूँ,
कोई पकड़ लेता है और मै छटपटा रही हूँ
पीता है ज़ब तक हर कोई मुझे,हाँ मै करहा रही हूँ..
बनना तो पार्वती था मुझे ,,,,
उफ्फ्फ मै पांचाली (द्रोपदी )हुई जा रही हूँ
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