क्यों उग आती है हर रोज चेहरे पर ये दाढ़ी
बड़ी जिद्दी होती है जैसे हो जंगली झाड़ी
नवम्बर में हुआ था मंदा हज्जामों का धंधा
इस दाढ़ी से चलती है उनके जीवन की गाड़ी-
मलीहाबाद के आम खाने में उस्ताद अब्दुल क़ादिर ख़ाँ से किसी ने पूछा कि आप एक बार में कितने आम खाते हैं? तो ख़ाँ साहब ने जवाब दिया - एक दाढ़ी
-
कह दो उनसे वो जो
तलवारें ताने बैठे हैं
'हिंदी' है 'तिलक' वाले भी
और जो 'टोपी' लगाये बैठे हैं;
इसी माटी से बने है दोनों
इसी माटी की खाते हैं
बरसती है जब बदरा माटी पे
दोनों ख़ुशी में गाते हैं;
जितना चोटी का है
उतना दाढ़ी का भी
हिन्दुतान तेरा है
हिदुस्तान मेरा भी;
माना वो अहल-ए-सियासत हैं
सियासत करने बैठे हैं
हमने बेचा नहीं हिन्दुतान
वो बोली लगाने क्यों बैठे हैं;
बंटने ना दो इस 'ज़ागीर' को
यह तेरी-मेरी नहीं 'हमारी' है
गलती सियासतदानों की नहीं
यह तेरी, मेरी और 'हमारी' है
- साकेत गर्ग-
कब तक पकड़े रहूँ पूँछ प्रेम की
होती नहीं है अब पूछ प्रेम की
प्रेम की दाढ़ी में कोई तिनका नहीं
ऊँची रहती है सदा मूँछ प्रेम की-
सुना है बंदरों को जो प्यार पूँछ से होता है
वही मर्दों को दाढ़ी मूँछ से होता है
😂-
मेरे चेहरे की जो दाढ़ी है
जैसे तुमने पहनी साड़ी है।
मेरी दाढ़ी एकदम मुलायम
जैसे तेरी सिल्क की साड़ी है।
मैंने मूंछो को ताव देते हुए
तेरे गिरते पल्लू पे नज़र गाड़ी है
पल्लू संभाल के पास जब तू आती है
मेरी दाढ़ी सी ही लगती तू करारी है।
होंठो पे होंठ जब तू मेरे रखती है
कभी चुभती कभी गुदगुदाती मेरी दाढ़ी है।
सिसकती है तू जब सहलाता हूँ इसे तेरे बदन पे
मेरी दाढ़ी भी इश्क़ में मेरे जैसी खिलाड़ी है।
दाढ़ी पे हाथ फेरकर इशारा करता हूँ तुझे मैं
तू समझती नहीं इश्क़ में जरा सी अनाड़ी है।
मेरी दाढ़ी जैसे चम्बल की घाटी है
तेरा बदन जैसे बंगाल की खाड़ी है।
-
सड़क किनारे पड़े किसी घायल कंधे पर उठा कर
वो यूँ अस्पताल की ओर दौड़ पड़ा
रक्त के कुछ छींटे उसके कमीज़ से क्या चिपके
किसी सज्जन ने उसकी दाढ़ी देख कर उसे आतंकवादी करार दिया
आरे वो मुसलमां था जनाब
इंसाफ की क्या आशा रखता होगा
-