तम से भरी है हर निशा दिशा, चाँदनी भी है खफ़ा खफा,
चेहरा मुझसे तू ने छिपाया क्यूँ, चाँद का अब होगा क्या?
अमावस की है रोज रात यंहा, चकोर भी चुपचाप सा है,
घूँघट का पट तुम उठाओ जरा, चाँद का अब होगा क्या?
दिशा भ्रमित हुई पृरी धरा, सितारा साँझ का है गुम सुम,
क्यों आँखे ढकी है पलकों से, चाँद का अब होगा क्या?
चंद्र वलय है धुँआ धुँआ, श्रृंगार विहीन है ये पूरा आकाश
सोलह श्रृंगार से हो तू दूर क्यों, चाँद का अब होगा क्या?
बादलों का चाँद पर लगा है डेरा, उजास को निगल रहा,
चाँदनी को तुम यूँ ना कैद करो, चाँद का अब होगा क्या?
चाँद पर जो काला दाग है, वो खूबसूरती का निशान है,
जैसे काला तिल तेरे गाल पर, चाँद का अब होगा क्या?
करवा चौथ भी अभी दूर है, सावन को यूँ ना जाया कर, _राज सोनी
दिल के अरमां समझ जरा, "राज" का अब होगा क्या?-
सितम की ये इंतेहा देखो, हथियार बनाया घूँघट को,
तेरी मुस्कान काफी है, क्यों जहमत देती घूँघट को।
इस खिले हुए गुलाब पर मैं भँवरा सा मंडराता फिरूँ,
महक को यूँ ना कैद कर, जरा हटा दे तू घूँघट को।
बेचैनी मेरी यूँ न बढ़ा, मेरे दिल पर जरा रहम तो कर,
हुस्न पर पर्दा नाजायज है, हौले से सरका घूँघट को।
नज़ारा नुमायां कर लेती हो तुम घूँघट की आड़ से,
दीदार हक से बेदखल न कर, जरा सरका घूँघट को।
कांधी बिजली, भड़का शोला, चाँद जमीं कौनसा है,
जब तुमने हटाकर गिराया, अपने मुखड़े से घूँघट को।
नजर से बचने का नहीं नुस्खा, काला टीका उपाय है,
नजर नहीं लगाऊंगा मैं, तुम बेपर्दा कर दो घूँघट को।
मेरी कत्ल करने की तेरी यह दिलकश साज़िश देखो,
गुजरती जब करीब से तो चेहरे से हटा देती घूँघट को।
माना लाज का ये पहरेदार है, जो तेरा पूरा अधिकार है,
तेरी हया की दुनिया 'राज' से है, विदा करो घूँघट को।
_राज सोनी-
नजर पुरुषों की
खराब
मगर ,
घूँघट स्त्रियों के
लिए
ये है पुरूष प्रधान
समाज की
उच्चस्तरीय
निम्नतम
सोच..-
आदत है हमारी, धीरे धीरे प्यार करने की।
अभी सिर्फ फेरे लिये हैं, घूँघट अगली बार उठायेंगे।-
जहाँ तुम्हें घूँघट से आगे
निकलता नहीं
देख सकते ,
आप उनसे आगे निकल जाओ
वो ये कैसे देख
सकते है ,-
हां कुछ बेबकूफों ने ढाए हैं नारी जाति पर ज़ुल्म,
पर सभी पुरुषों की एक जैसी छवि नहीं होती,
एक दो दरिंदों की बजह से न करो हर पुरुष को बदनाम,
क्योंकि हर पुरुष गलत और हर औरत सही नहीं होती।-
""घूँघट""
चेहरे की भाव-भंगिमा
को छुपाता है" घूँघट"
बनते बिगड़ते भावों को
नही दिखाता है" घूँघट"
सिसकियों को भी
छुपाता है "घूँघट"
आंसुओं से भीगे चेहरे को
दुनिया की नजरों से
छुपाता है "घूँघट"
तकलीफों को भी अंदर
ही रख देता है "घूँघट"..
जिंदगी की खूबसूरती
बनाये रखने का "आवरण"
है" घूँघट"-
कोई घूँघट, कोई मुखौटा, कोई नक़ाब में है।
सच कहूँ तो यहाँ काँटा हर गुलाब में है।-
नज़रें मिला के जो मैं मुस्कुराई तो तुम पलकें झुका लेते हो,
शर्म का पर्दा तुमने डाल रखा है और मेरी घूंघट गिरा देते हो।-
सुनो तुम,
यूँ ख्वाबों के घूँघट में मन बहलाने आया ना करो।
जब सुबह रुलाकर अलविदा कह ही दिया था
तो यूँ रात में प्यार से गले लगाने आया ना करो।
छोड़ कर चले गए थे जो तुम बीच मंझधार में
अब यूँ पीछे मुड़-मुड़ देख हमें सताया ना करो|
आदत लग गई थी जो विरह के अगन में जलने की
अब यूँ प्यार की चाँदनी में सुकून दिलाया ना करो।
अलगाव की लू में छोड़ गए थे जो जलने को हमें
अब यूँ सर्द हवा सी लिपट और मोहलत मांगा ना करो।-