कलम जब_*उठाती हूँ तो पन्ने__भर जाते है
कहीं ना कहीं मेरे__ दिल के कागज़ कोरे_*रह जाते हैं
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कागज़ का वो सीधा घर था,
भिंगते बारिश में बेह गया।
कोशिश तो बहुत कि उसको बचा लूं,
पर उसको बचाते बचाते मै रह गया।
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अल्फाज लिए फिरता हूं अहसासों की मंडी में ,
कागज काले करता हूं इंसानों की बस्ती में।-
कागजी जमीन पर कलम का हल चलाते हैं
तेरे प्यार की मजदूरी में शब्दों की फसल उगाते हैं-
कौनसी स्याही डालते हो तुम अपनी कलम में...
कागज़ पे लिखते हो, यहां दिल पे छप जाती हैं...
#क्या_साहेब-
किसी की झोली में नींद है आई
किसी की झोली में ख़्वाब
मेरी झोली में तीन ही चीजें
कागज कलम किताब-
पढ़ते हैं जब ख़ामोशी मेरी
मेरे शब्द बोलने लगते हैं
बनाकर कागज को आसमाँ अपना
पंख अपने खोलने लगते हैं-
मैं दरिंदा हूँ,
मुझे चाहिए नोचने को,
हर वक़्त कुछ ना कुछ,
कभी दर्द तो कभी ख़ुशी,
कभी कागज तो कभी ख़त,
कभी रात तो कभी दिन,
मैं हर वक़्त नोचने के फिराक में रहता हूँ !!-
कवि
न कम्प्यूटर पर लिखता है
न कागज पर;
न कीपैड से लिखता है
न कलम से ।
कवि
कल्पना पर,
कल्पना से,
कल्पना लिखता है ।।-