निकाल लाया हूँ एक पिंजरे से इक परिंदा
अब इस परिंदे के दिल से पिंजरा निकालना है
~उमैर नज़मी-
परिंदे कैद हैं तुम चहचाहाहट चाहते हो
तुम्हे तो अच्छा खासा नफसियाति मसअला है
© उमैर नजमी-
निकाल लाया हूँ एक पिंजरे से इक परिंदा
अब इस परिंदे के दिल से पिंजरा निकालना है
उमैर नज़मी-
जहान भर की तमाम आँखें निचोड़ कर जितना नम बनेगा
ये कुल मिला कर भी हिज्र की रात मेरे गिर्ये से कम बनेगा
मैं दश्त हूँ ये मुग़ालता है न शाइ'राना मुबालग़ा है
मिरे बदन पर कहीं क़दम रख के देख नक़्श-ए-क़दम बनेगा
हमारा लाशा बहाओ वर्ना लहद मुक़द्दस मज़ार होगी
ये सुर्ख़ कुर्ता जलाओ वर्ना बग़ावतों का अलम बनेगा
तो क्यूँ न हम पाँच सात दिन तक मज़ीद सोचें बनाने से क़ब्ल
मिरी छटी हिस बता रही है ये रिश्ता टूटेगा ग़म बनेगा
मुझ ऐसे लोगों का टेढ़-पन क़ुदरती है सो ए'तिराज़ कैसा
शदीद नम ख़ाक से जो पैकर बनेगा ये तय है ख़म बनेगा
सुना हुआ है जहाँ में बे-कार कुछ नहीं है सो जी रहे हैं
बना हुआ है यक़ीं कि इस राएगानी से कुछ अहम बनेगा
कि शाहज़ादे की आदतें देख कर सभी इस पर मुत्तफ़िक़ हैं
ये जूँ ही हाकिम बना महल का वसीअ' रक़्बा हरम बनेगा
मैं एक तरतीब से लगाता रहा हूँ अब तक सुकूत अपना
सदा के वक़्फ़े निकाल इस को शुरूअ' से सुन रिधम बनेगा
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एक तारीख़ ऐ मुक़र्रर पे तू हर माह मिले,
जैसे दफ़्तर से किसी शख़्स को तनख्वाह मिले..!
(उमैर नजमी)-
तुझे ना आयेंगी मुफ़लिस की मुश्किलात समझ
मैं छोटे लोगों के घर का बड़ा हूँ , बात समझ
मेरे इलावा हैं छः लोग मुनहसिर मुझ पर
मेरी हर एक मुसीबत को जर्बसात समझ
फलक से कट के जमीन पर गिरी पतंगें देख
तू हिज्र काटने वालों की नफ़सियात समझ
शुरू दिन से उधैड़ा गया है मेरा वजूद
जो दिख रहा है उसे मेरी बाकीयात समझ
किताब-ए-इश्क़ में हर आह, एक आयत है
और आँसुओं को हुरूफ़-ए-मुक्तियात समझ
करें ये काम तो कुनबे का वक़्त कटता है
हमारे हाथों को घर की घड़ी के हाथ समझ
दिलो-दिमाग ज़रूरी हैं जिंदगी के लिए
ये हाथ पाँव, इज़ाफी सहूलियात समझ
-उमैर नजमी
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बड़े तहम्मुल से रफ़्ता रफ़्ता निकालना है
बचा है जो तुझ में मेरा हिस्सा निकालना है
ये रूह बरसों से दफ़्न है तुम मदद करोगे
बदन के मलबे से इस को ज़िंदा निकालना है
नज़र में रखना कहीं कोई ग़म-शनास गाहक
मुझे सुख़न बेचना है ख़र्चा निकालना है
निकाल लाया हूँ एक पिंजरे से इक परिंदा
अब इस परिंदे के दिल से पिंजरा निकालना है
ये तीस बरसों से कुछ बरस पीछे चल रही है
मुझे घड़ी का ख़राब पुर्ज़ा निकालना है
ख़याल है ख़ानदान को इत्तिलाअ दे दूँ
जो कट गया उस शजर का शजरा निकालना है
मैं एक किरदार से बड़ा तंग हूँ क़लमकार
मुझे कहानी में डाल ग़ुस्सा निकालना है
- उमैर नजमी-
तुम्हें जो भी लगा था "उमैर" क्या मसअला है
ज़ाती न क़ायनाती वो नफ़सियाती मसअला है
ख़ैर जो भी हुआ सब इत्तेफ़ाकी मसअला था
और जो हुआ अब बस हादसाती मसअला है
कोई रोये कोई गाये ना सोये ना खाये तो क्या
इतनी सी बात है क्या सियासती मसअला है
फ़ितरत कब बदली है भला किसी की कहने से
हर नस्ल का अपना इक जीनियाती मसअला है
"नजमी" ज़मीं से जुड़े हो तुम इधर ये "शफ़क़"
शजर हैं कि बशर यह खूब नबताती मसअला है
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