हुआ जो हुआ फिर देखने क्या असबाब
नफ़सियात क्या मंसूबे क्या क्या असबाब
जब फ़र्क़ पड़े तब तक ही वजूद रहता है
फिर रुख क्या जमाल क्या क्या आबोताब
साहिल से पार दरिया में उतार दी कश्ती
तो ज़लज़ला क्या सैलाब क्या क्या गिर्दाब
दिल बहलाने को अजीबोग़रीब वजूहात हैं
ये गुलाब क्या अज़ाब क्या क्या अलक़ाब
ये सब एक ही शजर के समर हैं "शफ़क़ "
ये आफ़ताब क्या ज़ोहरा क्या क्या महताब-
या तो कुछ नहीं.. या फिर सब बेहिसाब..
एक आँसू था
आँख के किसी कोने में रहता था
कभी-कभी किनारे आकर तुम्हें देख लेता था
मैंने पूछा "बाहर क्यूँ नहीं आ जाते"
"यूँ तो नहीं आऊँगा " उसने मुँह बिचका कर बोला।
तो, फिर कैसे? आँख दबाते हुए फिर से पूछा मैंने।
"एक शर्त है, उसके कंधे पर दम निकले तो...
तब ही बाहर आऊँगा " बोलो अब..
अब इसे कौन समझाए....
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ऐ दिल गुज़ारिश है कि गुज़रगाह में उनके इंतज़ार में गुज़ारे लम्हों से ही गुज़ारा कर ले
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काश कि..
हम और थाम पाते
हथेलियां
एक दूसरे की
कर पाते विश्वास
और
थोड़ा प्रेम
निष्कपट अंतस से
शायद...
कोई आत्मिक ऊर्जा
बदल देती कुछ लकीरें
हमारे हाथों में
एक दूसरे के नाम की
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यूँ तो कोई राह जाती दिखती है मेहताब तक
उसके छोर पर आबलापाई के सिवा कुछ नहीं
तो चलो जुगनुओं के झुरमुट तले सुस्ताया जाये
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हर वक़्त शूल क्यूँ यही बस गड़ता है
तू इनकी आँख में कंकर बन गड़ता है
तुझ बरहना-पा को डर आबलापाई का
तेरा तो अश्क़ भी अर्क़ ही बन पड़ता है
देखी है हमने भी चाँद की अस्ल सूरत
हर शब बस चाँदनी पोत चल पड़ता है
वो इश्क़ वो रश्क़ वो गिले अब सब ख़त्म
दिमाग़ दिल से भला अब कब लड़ता है
कई दफ़ा उखाड़ा है वजूद रूह से "शफ़क़"
हर मर्तबा कुछ और ही घना उग पड़ता है-
यूँ तो कोई राह जाती दिखती है मेहताब तक
उसके छोर पर आबलापाई के सिवा कुछ नहीं
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शीत पड़े संबंधों को
पड़े रहने दीजिये
शीत भंडारण में ही
तापमान बढ़ाने से भी क्या लाभ??
माना,
संबंधकणों में गतिज ऊर्जा बढ़ेगी
कंपन बढ़ेगा, पर
घटने लगेगा इनमें आकर्षण बल
और
ये सब अपना नियत स्थान छोड़ेंगे
स्वतंत्र गति करेंगे
मज़े की बात यह है कि
इस सब में खर्च की गई ऊष्मीय ऊर्जा
कहाँ जाती है??
अब तक तो ज्ञात नहीं।-