स्त्री का क्रिकेट खेलना आधुनिकता नहीं।
आधुनिकता तब होगी जब स्त्री और पुरुष एक साथ खेलें।-
आधुनिक कविता, आधुनिक बालाओं की तरह होती हैं।
इनसे भी नहीं सम्भलता अलंकारों का बोझ। बन्धनों में इन्हें घुटन होती है। सीधी बात नो बकवास वाला रवैया होता है इनका। इनके पैर ज्यादा देर तक एक जगह नहीं टिकते।-
मैं आधुनिक युग की आधुनिक नारी हूं !!
थोड़ी सी मनमौजी हूं थोड़ी संस्कारी हूं !!
कभी बेचारी हूं तो कभी सब पर भारी हूं !!
साड़ी जेवर पहन लू पूजा में जाने वाली हूं !!
सदा पहनना पसंद मॉडर्न पहनावे वाली हूं!!
चाट,कचोड़ी,गोलगप्पे चाव से खाने वाली हूं !!
बात ग़र हो फिगर की तो ग्रीन टी पीने वाली हूं !!
घर और बाहर सब खुद ही सम्भालने वाली हूं !!
अगर जरूरत हो खुद की सेवा करवाने वाली हूं !!
पति के संग बगल सीट में बैठ घूमने जाने वाली हूं !!
बात हो काम की तो खुदी अकेले भगाने वाली हूं !!
थोड़ी डरने वाली हूं थोड़ी धमकाने वाली हूं !!
किसी की मदद की नहीं चाह खुद सब करने वाली हूं !!
सबसे तो मैं जीत भी जाऊँ पर बच्चों से बस हारी हूं !!
:अभि:
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मैं लुंगी चप्पल और शर्ट बिना प्रेस के
बड़ी ढाढी के साथ निकल पड़ता हूँ
इस 'आधुनिक' जमाने में लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं,
यह सोचने के लिए समय बहुत छोटा है?
यदि उनके जीवन में बेहतर चीजें चल रही होतीं,
तो उनके पास बैठकर
मेरे बारे में बात करने,
और सोचने का समय नहीं होता।
..-
किन्तु मैंने तो
सुना था
कवि रचते हैं,
निराश होने पर ही...!!
(शेष अनुशीर्षक में)-
ये आभासी दुनिया है बंधु
प्रत्येक चित्र में वैचित्रता है
दिन प्रतिदिन सहस्र बन्धन
बन्धन मुक्त हो रहे है
न स्नेह का बंधन ही
बांध पाता है किसी को
न ममता ही काम आ रहा है
बस कुछ आभासी सम्बंध जो बने हैं
बिन उत्तरदायित्व के निभ रहा है
एक दूसरे के काम आना
ये नगरीय व्यवहार नहीं
संवेदनहीन कहें या समयाभाव
आपस में पहचान नहीं
जाने कहाँ ले जाएगी हमें
आभासी दुनिया की ये बात
आधुनिकता के नाम पर कहीं
हम हो जाये न बरबाद-
अब ना घटा छाएगी जब जुल्फों वाले जुल्फ कटा बैठे
अब ना दिन में रात हो पाएंगी जब हुस्न वाले कजरा भुला बैठे-
"आधुनिक समय में लड़की का किरदार "
जी हां मैं लड़की हूं , पर मोम की गुड़िया नहीं हूं।
आधुनिक नारी हूॅं मैं, परंपरावादी बुढ़िया नहीं हूॅं ।
घर, परिवार समाज सभी को अपेक्षाएं हैं मुझसे।
आप चाहो जो बन जाऊं ,जादू की पुड़िया नहीं हूॅं।
मोम की गुड़िया नहीं हूॅं ............
पाला पोसा मुझको जीना सीखाया दुनिया में ।
पढ़ा लिखा काबिल बनाया जीने का हक दे दो।
मेरी भी हैं चाहते, जगमगाते अरमान हृदय में।
आंगन में फुदकने वाली खाली चिड़िया नहीं हूं।
मोम की गुड़िया नहीं हूॅं .........
विवाह करके बाबुल तुमने फर्ज अपना पूरा किया।
ससुराल बनी किस्मत तो क्या सुख की गारंटी है।
दोनों घर की लाज कहकर मुझको तूने विदा किया।
दो कुलों को जोड़ने वाली सेतु , मैं पुलिया नहीं हूॅं।
मोम की गुड़िया नहीं हूॅं ...........
मेरे भी हैं कुछ सपने जो देखे खुली आंखों से मैंने।
हकीकत का जामा पहनाऊं , इतना अवसर दे दो।
तेरे आंगन की शोभा बने बस दूजे घर का गुलदस्ता
सजावट का सामान मैं, मोतियों की लड़ियां नहीं हूॅं।
मोम की गुड़िया नहीं हूॅं ...........
सुधा राज
पूरी रचना अनुशीर्षक में.........
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मेरी कविताएँ,
आधुनिक हैं,
उन्मुक्त है
इनका आचरण,
नहीं ओढ़ती ये
ज्यादा शब्दों के
आवरण।-
वार पर वार चहुँ ओर
वार की ही है हुंकार
वाकिफ हैं सभी रक्त रंजित
मानव जीवन पर भारी त्रासदी
फिर भी छेड़े जा रहे हैं
शक्ति हथियारों की
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