न जाने क्या है हम दोनों के दरमियाँ जो
दूर रह कर भी पास आ जाते है .....
तुम्हारे दिए सितम आज भी याद है
मुझे फिर भी न जाने दिल मानने को तैयार
हो नही कुछ तो है हम दोनों के दरमियाँ जैसे
दिल का धड़कन से, आंखों का आंसू से.....
शायद ये खुदा का बनाया हुआ वो अटूट रिश्ता है
जो न कभी जुड़ सकता है और न कभी टूट सकता....
-
हमारी काबिलियत के भी क्या कहने...
हम इश्क़ से अनजान हैं,
फिर भी इश्क़ का अंजाम बता सकते हैं...-
तेरी यादो का तो बसेरा है मुझमें
कभी तुम भी आजाना वक़्त रोक कर मिलने
अनजान से जान तक का सफ़र तो नाप आये हम
पर रहना होगा यहाँ अजनबी बन कर फिरसे-
माना कई दफा अल्फा़ज कडवे जरुर सुनिये हो
मगर मीठी चाशनी की तासीर चखा कर भी हमे अजमाये हो.......-
बेशक अजनबी बनकर रहो तुम
पर अनजान नहीं हो सकते....
लौट आना फिर से,दिल करे तो..!
पर सुनो अब मेरी जान नहीं हो सकते-
ऐ दिल तेरे शौक़े'अज़ीयत से परेशान हो चला हूँ
लाश ढ़ोता आरमनों का कैसा इंसान हो चला हूँ।
इस उम्र-ए-दौरा में भी जीने का सलीका न आया
मेरे ख़ालिक, देख ये सब मैं अब हैरान हो चला हूँ।
ग़मो से लिपट के रोती रहती हैं अक़्सर आंहे मेरी
तज़ादे'पैहम से उलझा ग़मज़दा हैवान हो चला हूँ।
ख़याल-ए-सूद-ओ-जियाँ में उलझी उलझन मेरी
गोया मैं झोलीदा बनिये का सामान हो चला हूँ।
कौन निभाता हैं साथ भला गर्दिश-ए-अय्याम में
तकाज़ा-ए-वक़्त से महरूम वो नदान हो चला हूँ।
तस्बीह कर के चश्म-ए-तर करती रही दुआ मेरी
नालिश करता हुआ मैं कितना अनजान हो चला हूँ।-
जो जान कहकर अनजान बन गए ,
लोग आज भी हमें उनके नाम से जानते हैं।-
मंजिल दूर नहीं थी। बस पहुंचा करीब था।
रास्ते में मिला गया एक अंजान शायद बेहद गरीब था।
पहुंचा आया उसे अपनी मंजिल तक-2
उसका जज्बा देख मेरा लौट जाना ही ठीक था।
-