उसके आखरी अल्फाज़ मुझे आज भी याद हैं,,
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अच्छा बारात आ गई तुम अपना ख्याल रखना!!-
लफ़्ज़ों के बोझ से थक जाती है कभी कभी जुबान भी साहब,,,
ना जाने खामोशी मजबूरी है या समझदारी...!!!!!-
फिजूल है मेरे लिए वो सारी बातें जो तूने लफ़्ज़ों में बयां की है
मैं तों हकीकत उसे मानूं जो तेरी नज़रों से बयां हुई है-
यू तो अक्सर बातें होती है
उनकी नज़रों से
पर नज़रों के लफ़्ज़ , अक्सर
उनके समझ नहीं आतीं..
―pankaj semwal
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न जाने लफ़्ज़ कितने लिख दिए
सफ़ेद पन्नों पर काले तिल रख दिए-
किस्मत में नहीं हो इल्म हैं मुझे पर फ़िर भी दुआ करते हैं
क्योंकि सुना है मैंने भी कि क़िस्मत कभी भी बदल सकती हैं-
तेरे ख्यालों को यूँ ही लफ्ज देने लगे है
और लोग कहते है हम शायरी करने लगे है।।-
लफ्जों की मुझको जरूरत नहीं है
जबसे चेहरों को मैं पढ़ने लगी हूं
थक जाती हूं अक्सर जब शोर से
खामोशी से बातें करने लगी हूं
दुनिया की बदलती तस्वीर देख कर
शायद मैं कुछ कुछ बदलने लगी हूं
नफरत के जहर को मिटाना ही होगा
इरादा यह मजबूत करने लगी हूं
परवाह नहीं कोई साथ आए मेरे
मैं अकेली ही आगे बढ़ने लगी हूं ।।-
कहा था हमने उनसे, कुछ, लफ्ज़ ही लिख देना, मुझ पे।
मगर! वो नाचीज़, फिर टाल गए,यह कह के,
"अब, क्या?मैं लिखूँ तुझ पे",
खुदा ने, पहले से ही, क्या नायाब़ कारीगरी की है, तेरे हुस्न पे।।-