शीर्षक फिर से नहीं मिला 🙄🙄
विष्णुपद छंद
पामाल 'पराजित -पठ ' परंच , पासान रावरो ।
भ्रात नेह नाह से निर्विण्य , त्रस्त वह साँवरो ! ॥
हाहाह ! कथो बीर कवन है, अहं वा कातरो ? ।
'सुवर्ण ऋक् महि ' प्रिय प्रिय कह बन, भटकता बावरो ? ॥-
स्रष्टा उभयनिष्ठ लंकापति,धर्म आराधना।
अतः निकृष्ट न राम न रावण,अधर्म अभावना।
सर्वप्रथम स्वयमेव समर हो,स्वार्थ तत साधना।
सुघर-सुधीर!मन:स्थिति साधो,साध्वस घटावना।-
श्री राम से रावण हैं जन्में, इनसे ही सकल संसार है
कुछ पाप थें रावण को धोने, तब ही हुआ व्यभिचार है
तारन था रावण को प्रभु को, तभी सिंधु के सीता पार है
सब श्रेष्ठतम,नहीं नीच कोई, सबके राम ही पतवार हैं।
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निस्संदेह महावीर, महाज्ञानी, महाभक्त हो तुम रावण।
पर कर लिया सब कुछ नष्ट तुमने, सिर्फ 'मैं' के कारण।
और इसी मदांधता में कर दिया, ये व्यर्थ प्रश्न अकारण,
जानता है अज्ञानी भी, कि कहाँ राम और कहाँ रावण!!
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अहंकार बस निज अनुज तजे, तजे न निज माना!
भ्रातृ प्रान बस प्रिया रन त्यागि, राम सरिस जाना?
भय नीच जेहि सीता हरना, करि स्त्री अवमाना!
करि दया विभीसन अपनाई, राम ‘श्री’ प्रमाना!-
राम और रावण की तुलना कर रहे हो!
या हिमायत हो रही धनबल की दिल से।
छल कपट और योग-हट से जो भी पाया!
मूर्ख रावण ने उसे ही तो गंवाया।
तुम सनक और शक्ति में अंतर तो समझो!
राम अतुलित शील और पौरुष-पराक्रम।
वेदना मानव के दिल में हो गई फिर-
ढीठ बनकर लाख पुत्रों को मिटाया,
दम्भ फिर भी प्रश्न पूछे श्रेष्ठता का!
राम के चरणों की धूलि भी नहीं था,
लाज रखली वृद्ध की बस
श्रीराम ने सम्मान देकर।-