होता बालक निर्दोष, निश्चिन्त, सबकुछ सरल समझता हूँ!
कभी जिद्दी, कभी अड़ियल टट्टू, कभी आँख का तारा बनता हूँ!
होता बेटा अपने माँ बाप का उत्तरजीवी सूचक से,
कभी राम, कभी श्रवण, कभी परसुराम सा बन जाता हूँ!
होता प्रेमी किसी प्रेयसी का गढ़ता प्रेम की परिभाषा,
कभी कृष्ण तो कभी शिव तो कभी कामदेव मैं बन जाता हूँ!
होता पति तो बन के अर्धनारीश्वर परिवार पोषक,
कभी मोम, कभी कठोर, कभी मासूमियत से निर्वाह करता हूँ!
होता बाप तो फस जाता दो पीढ़ियों के संतुलन में,
कभी चुप, कभी समझाइश, कभी आंख मूंद के चलता हूँ!
होता पितामह तो बन जाता हूँ छांव बरगद की मैं,
कभी लाचार, कभी अधिकार, कभी नसीहत से बातें करता हूँ!
होता पुरुष जो इस धरा पर, के महत्व पर गौर नहीं,
खग की भाषा खग ही जाने, सब पुरुषों को समर्पित करता हूँ!
_राज सोनी-
दरारें थीं दीवारों में, चू रही थी छत, टूट रही थी खिड़की नहीं लिखी,
परदेस में बेटे को, माँ ने ख़त में, कोई भी ख़बर सच्ची नहीं लिखी!-
कुछ लापरवाह, कुछ बेफिक्र, कुछ बेखबर होते है,
बेटे मां बाप के सामने जानबूझ के बेपरवाह होते हैं।
पता है उसे घर के हालात, मां बाप की चिंता फिक्र,
बिन कहे अपनी ख्वाहिशों को सूली पर चढ़ा देते है।
खबर है उसे की उस पर है ढेरों उम्मीदें मां बाप की,
जिम्मेदारियां छोटी उम्र से ही सीखने लग जाते है।
शिकायत, उलहाना, नाखुशी मिलती हैं रोज घर से,
यह तो बेटे होने का है इनाम, वो स्वीकार करते है।
रहना होगा उसे दो पीढ़ियों की बीच कड़ी बनकर,
एक को समझना और दूसरे को समझाना पड़ता है।
कड़ाई की परवरिश से तप के हो जाते है कुंदन से,
बेटे से पहले तुम पुरुष हो ये अनकहा समझ जाते है।
जब बेटा बनता पिता तब तलाशता खुद को बेटे में,
हर बेटे की यही कहानी क्योंकि बेटे ऐसे ही होते हैं।-
पिता सन्तानों का छाता होता है
जीवन के आतपों - शीत, धूप, वर्षा
से बचाने को
दौड़ता रहता है उनके पीछे-पीछे
बावजूद इसके कि
वे अब बड़े हो गए हैं और
छाते की छाया से बाहर कूदते हैं
पिता छाता बना दौड़ता रहता है
अनजान इस बात से कि
छाता अब तार-तार हो चला है-
उस घर मे दो बच्चे है।
एक स्कूल जाने वक़्त हर दिन रोता है।
एक पहले को रोते देख कर रो लेती है।-
जब बेटे ने माँ को घर से निकाला था
माँ को याद आयी वो बेटी जिसे उसने गर्भ में मार डाला था-
बेटा
बहुत मन्नत मांगी थी तब जा कर तेरे आने की खुशियां मनाई थी,
ऐसी कोई जगह नही थी जहां मिठाई न बठवाई थी,
खुद के लिए कभी कपड़े खरीदी नहीं थी,
लेकिन तेरे हर जन्मदिन पर तुझे नए कपड़े जिलाई थी,
खाने के पैसे नहीं लेकिन पढ़ाई लिखाई प्राइवेट स्कूल से कराई थी,
चप्पल पहनने की औकात नहीं थी मगर तुझे ब्रांडेड जुते ही हमेशा जिलाई थी,
तेरी जिद से आगे हमेशा हारी थी,
तुझे तेरी पसंद की हर चीज जिलाई थी,
उम्र बीत गई हमारी चप्पल पहनकर घूमने की,
मगर तेरे घूमने के लिए तुझे बाइक जिलाई थी,
कर्ज ले लेकर तेरी हर दीवाली अच्छी बनाई थी,
हमने तो खबी मिठाई चकी नहीं मगर तेरी दीवाली के कभी बिना मिठाई के न बनाई थी,
तेरी हर इच्छा पूरी हो सके इसके लिए मेहनत खूब तेरे पापा से कराई थी,
फिर आखिर क्यों तूने हमारे बुढ़ापे में हमें वृंदाआश्रम की सेर कराई थी,
तेरी लंबी उम्र के लिए डेली मंदिर में दुआ मांगने गई थी,
फिर क्या कमी थी हमारे प्यार में जो तूने ज़िन्दगी के आखिरी पल अपने से दूर वृंदाआश्रम में कराई थी....-
अखरी खत........!
मां....,
अरसा बित गये, सीने से लगे तेरे, खुदा की रहमत तो देख.....!
लौटा भी तो,शहीद बनके, दर पे तेरे,
अब यूं न, अश्क बहाना अपने इन आंखों से, देख के हमें,
बस एक बार, लिपट जाना सीने से, तू मेरे।
मुकम्मल हो जाएगी हमारी मौत, छुअन से तेरे।।
तेरा शहीद बेटा.....!-
बैठो एक शाम हमारे भी
साथ कभी।
गुफ्तगू कर लेंगे हम भी
तुम्हारे साथ कभी।
माना मैं तेरा सच्चा यार नहीं अभी।
ऐसा भी नहीं बन ना पाऊं कभी।
माना उम्र में फासला है अभी।
पर बेटा मेरे जैसे तू भी ।
तो बनेगा किसी का बाप कभी।
करता है तू मुझको नजरंदाज अभी।
कहीं ऐसा ना हो तू भी मेरी तरह नज़रंदाज़ हो कभी।
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